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दुनिया सागर मैं बून्द रहा।। जो आज मैं आंखें मूंद

दुनिया सागर मैं बून्द रहा।।

जो आज मैं आंखें मूंद रहा,
दुनिया सागर मैं बून्द रहा।
निजबल का जो अभिमान खड़ा,
मूर्छित और वो कुंद रहा।

अंधी नगरी का राजा काना मैं,
दुनिया बटेर उसका दाना मैं।
कुंए का मेढक मैं बन बैठा,
है जग विस्तृत कब माना मैं।

सावन का अंधा मैं बैठा था,
दम्भ लहु अंदर पैठा था।
रस्सी तो जलती रही मगर,
तना हुआ तब भी ऐंठा था।

खून पसीना एक हुआ कब,
कर्म मेरा कहो नेक हुआ कब।
बस बांछें खिलती रहतीं थीं,
यत्न कहो तुम अनेक हुआ कब।

चींटी था पर भी निकले थे,
अहं-बर्फ़ कहाँ कब पिघले थे।
खूंटे के बल जो कूद पड़ा,
चहुये के दांत कहाँ कब निकले थे।

छाती पे मूंग मैं दलता रहा,
खोटा सिक्का पर चलता रहा।
सच से आंखें चुराईं थीं,
डूबते सूरज सा ढलता रहा।

ताश के पत्ते बन बिखरा हूँ,
कब आग चखी और कब निखरा हूँ।
पल पल घुटनों पर आता रहा,
सब जिसपे फूटे मैं वो ठीकरा हूँ।

जब आंख खुली थी सवेर नहीं,
घर था अंधेरा लगी कोई देर नहीं।
अपना बोया था काट रहा,
किस्मत का था कोई फेर नहीं।

चिड़िया बस चुगती खेत रही,
जीवन मुट्ठी से फिसलती रेत रही।
आज किनारे बैठ हूँ रोता,
कालिख बोलो कब श्वेत रही।

©रजनीश "स्वछंद" दुनिया सागर मैं बून्द रहा।।

जो आज मैं आंखें मूंद रहा,
दुनिया सागर मैं बून्द रहा।
निजबल का जो अभिमान खड़ा,
मूर्छित और वो कुंद रहा।

अंधी नगरी का राजा काना मैं,
दुनिया सागर मैं बून्द रहा।।

जो आज मैं आंखें मूंद रहा,
दुनिया सागर मैं बून्द रहा।
निजबल का जो अभिमान खड़ा,
मूर्छित और वो कुंद रहा।

अंधी नगरी का राजा काना मैं,
दुनिया बटेर उसका दाना मैं।
कुंए का मेढक मैं बन बैठा,
है जग विस्तृत कब माना मैं।

सावन का अंधा मैं बैठा था,
दम्भ लहु अंदर पैठा था।
रस्सी तो जलती रही मगर,
तना हुआ तब भी ऐंठा था।

खून पसीना एक हुआ कब,
कर्म मेरा कहो नेक हुआ कब।
बस बांछें खिलती रहतीं थीं,
यत्न कहो तुम अनेक हुआ कब।

चींटी था पर भी निकले थे,
अहं-बर्फ़ कहाँ कब पिघले थे।
खूंटे के बल जो कूद पड़ा,
चहुये के दांत कहाँ कब निकले थे।

छाती पे मूंग मैं दलता रहा,
खोटा सिक्का पर चलता रहा।
सच से आंखें चुराईं थीं,
डूबते सूरज सा ढलता रहा।

ताश के पत्ते बन बिखरा हूँ,
कब आग चखी और कब निखरा हूँ।
पल पल घुटनों पर आता रहा,
सब जिसपे फूटे मैं वो ठीकरा हूँ।

जब आंख खुली थी सवेर नहीं,
घर था अंधेरा लगी कोई देर नहीं।
अपना बोया था काट रहा,
किस्मत का था कोई फेर नहीं।

चिड़िया बस चुगती खेत रही,
जीवन मुट्ठी से फिसलती रेत रही।
आज किनारे बैठ हूँ रोता,
कालिख बोलो कब श्वेत रही।

©रजनीश "स्वछंद" दुनिया सागर मैं बून्द रहा।।

जो आज मैं आंखें मूंद रहा,
दुनिया सागर मैं बून्द रहा।
निजबल का जो अभिमान खड़ा,
मूर्छित और वो कुंद रहा।

अंधी नगरी का राजा काना मैं,