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मन हमारा सुनों यह भवन हो गया । शीश जब भी झुका

मन  हमारा  सुनों  यह  भवन हो गया ।
शीश जब भी  झुका तो नमन हो गया ।।

जबसे  मेरा  तुम्हारा  मिलन  हो  गया ।
दूर  तबसे    हमारा   गगन   हो   गया ।।

आस  से  साँस  को  रोकता  मैं  गया ।
एक दिन मातु से फिर मिलन हो गया ।।

छू  लिया  जब  चरण मैं वहां मातु के ।
फिर  दुखो  का  हमारे  हरन  हो गया ।।

दे  रहा  इम्तिहाँ  इस  तरह  मातु  को ।
दिल जला तो सुनों फिर हवन हो गया ।।

भूख  से  मैं  तडपता  बिलखता  रहा ।
मातु  दर्शन  दिए  तो  चमन  हो  गया ।।

मातु  की  हाथ  में  लाल  चुनरी लिए ।
पाँव फिसला वहीं तो कफ़न हो गया ।।

धूल था ये प्रखर कल तलक पाँव की ।
अब वही मातु का सुन चरन हो गया ।।

२४/०३/२०२३   -   महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR मन  हमारा  सुनों  यह  भवन हो गया ।
शीश जब भी  झुका तो नमन हो गया ।।

जबसे  मेरा  तुम्हारा  मिलन  हो  गया ।
दूर  तबसे    हमारा   गगन   हो   गया ।।

आस  से  साँस  को  रोकता  मैं  गया ।
एक दिन मातु से फिर मिलन हो गया ।।
मन  हमारा  सुनों  यह  भवन हो गया ।
शीश जब भी  झुका तो नमन हो गया ।।

जबसे  मेरा  तुम्हारा  मिलन  हो  गया ।
दूर  तबसे    हमारा   गगन   हो   गया ।।

आस  से  साँस  को  रोकता  मैं  गया ।
एक दिन मातु से फिर मिलन हो गया ।।

छू  लिया  जब  चरण मैं वहां मातु के ।
फिर  दुखो  का  हमारे  हरन  हो गया ।।

दे  रहा  इम्तिहाँ  इस  तरह  मातु  को ।
दिल जला तो सुनों फिर हवन हो गया ।।

भूख  से  मैं  तडपता  बिलखता  रहा ।
मातु  दर्शन  दिए  तो  चमन  हो  गया ।।

मातु  की  हाथ  में  लाल  चुनरी लिए ।
पाँव फिसला वहीं तो कफ़न हो गया ।।

धूल था ये प्रखर कल तलक पाँव की ।
अब वही मातु का सुन चरन हो गया ।।

२४/०३/२०२३   -   महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR मन  हमारा  सुनों  यह  भवन हो गया ।
शीश जब भी  झुका तो नमन हो गया ।।

जबसे  मेरा  तुम्हारा  मिलन  हो  गया ।
दूर  तबसे    हमारा   गगन   हो   गया ।।

आस  से  साँस  को  रोकता  मैं  गया ।
एक दिन मातु से फिर मिलन हो गया ।।