अपनों की कद्र नहीं ग़ालिब तेरी पनाह में सज़ा उसकी मिली,न थे शामिल जिस गुनाह में। ज़ख्म हरा था हरा ही रह गया मरहम दिल न मिला आकर तेरी दरगाह में। पैर फिसलता नहीं ख़ुदा तेरी उस दुनिया में सुकून मिलता है, बस आकर कब्रगाह में। मुक्कमल माफ़ी ही होती तेरी अदालत में गर रिस्वत का ख्याल ,न आता गवाह में। न काम की किच-किच न बॉस का चिर्र-पों बनकर राजा रहा करते थे चरागाह में। जब वक्त की तपिस हो , ज़रा ध्यान से सुनो 'दरिया' अपने फ़ैसले बदल दो उसकी निगाह में।। ज़ख्म हरा था हरा ही रह गया