Nojoto: Largest Storytelling Platform

बहादुर- भाग १ रात के घुप्प अंधेरे में जब दूर तक को

बहादुर- भाग १
रात के घुप्प अंधेरे में जब दूर तक कोई हलचल न हो रही हो, कुछ हवाऐं थक कर सो गई हों और कुछ मानो नटखट सहेलियों की तरह जाने क्या बतियाती दबी आवाज़ में ठिठोली करती हों,पत्ते की हल्की सरसराहट मानो माँ की तरह डपट रहीं हों, दूर से आती कुत्तों की हूँक,रात के सम्मोहन को भंग करती, मानो शांत जल में एक वलय बना और वहीं लुप्त हो गया , लगता जैसे प्रर्कति के ये काले धूसर रंग भी कल्पना का कितना सुंदर संसार रच सकते हैं,दूर से आती नींद की परी जैसे सारे संसार में निद्रा रस बिखेर रही हो....तभी अचानक किताबों के पन्ने बार बार मेरे बालों पर चोट करने लगे मैं निढाल सा पङा नींद की परी के आगोश मैं जा रहा था और.... फिर वही आवाज़ ,रात के अंधेरे को चीरती,सारे सम्मोहनों को भंग करती,अंततः मेरे कान के परदों तक आ पहुंची , झटके से नींद टूटी तो देखा टेबल घङी के काँटे नब्बे अंश का कोण बना रहे थे 3:00 AM!! मैंने चौंक कर देखा और सर पकङ कर बैठ गया , उठकर गैस पर चाय रखी और हाथ में किताब लेकर पन्ने पलटने लगा-"तीन चेप्टर्स, और..सिर्फ तीन घण्टे!!" तभी फिर वही कर्कश आवाज़ पर इस बार उसको धन्यवाद करने को जी चाह रहा था,मैंने बङे से मग में चाय भरी टेंशन मैं टेबल की और बढा किंतु इस बार उसी कर्कश सीटी की आवाज़ के साथ डण्डे की आवाज़ ने मेरा धैर्य तोङ दिया ,यकायक ध्यान उसी पुरानी घटना की तरफ चला गया जिसे मैं कम से कम इस वक्त तो याद नहीं करना चाह रहा था। 'बहादुर' नाम था उसका, उसके इसी नाम के चार भाई और हैं ऐसा उसने बताया था ,माँ बाप ने ये नाम नहीं रखा, कब पङा याद नहीं, लोगों ने कभी नाम पूछना भी नहीं चाहा बस शक्ल देखी और बोल दिया 'बहादुर' उसने कभी विरोध नहीं किया, "क्या फर्क पङता है शाब नाम कुछ भी हो और.. वैशै भी मेरा अशली नाम ज़रा मुश्किल है...", मेरी ज़िद पर उसने बताया पर मैं एक बार भी न दोहरा सका।हमारे जीवन मैं कई ऐसी घटनाएं होती हैं जिनके होने का एहसास भी हम लंबे समय तक नहीं कर पाते,हमारे लिए वो छोटी और बेमानी होती हैं, और एक दिन अचानक वो हमारे सामने आकर खङी हो जाती हैं,चौंकाती हुई,या डराती हुई, पर ये घटना कुछ अलग थी 'मुस्काती' हुई, मेरा उससे पहला परिचय तब हुआ जब वो मेरे जीवन का अठारह साल तक हिस्सा रह चुका था, बात कुछ अजीब थी पर सच, 'बहादुर' सोसाईटी का वाचमैन, पेहले वो पगार पर था, पिछले साल सोसाईटी की अंदरुनी कलह की वजह से वो भंग हो गई और साथ ही बहादुर की नौकरी भी गई, पर बरसों के लगाव और पेट की भूख ने नया रास्ता खोज लिया, रात भर चौकीदरी और घर घर से महीने में एक बार पैसे लेना, काम में वो पक्का ईमानदार था इसका गवाह मैं रह चुका था,मेरा इंजीनियरिंग का वो पहला साल, और वो पहला एक्ज़ाम जब साल भर की मस्ती ने नाकों चने चबवा दिए थे, रात भर जागकर पढने के अलावा कोई चारा न था और वो मेरा पहला अनुभव था बहादुर की मौजूदगी के एहसास का,रात की नींद और पढाई की ज़ंग में बहादुर की हर घण्टे आती सीटी और डण्डे की आवाज़ मेरे लिए अलार्म का काम करती,जब मैं पहली बार उससे मिला भरोसा करना मुश्किल था कि ये वही सीटीधारी-डण्डापटक प्राणी है जिसकी एक आवाज़ बङे बङों का दिल दहला दे, बमुश्किल 5ft कद, छोटी आँखे,मानो रात भर जागने के लिए ही बनाया हो भगवान ने, और वो मुस्कान, मानो उसके व्यक्तित्व का एक हिस्सा हो,वो मुस्कान जो मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गई,दुख सुख,पाने खोने से परे ,सबके लिए एक जैसी, खुशबू की तरह बिखरती, किसी संक्रामक रोग की तरह फैलती,"शलाम शाब" उसके पहले दो शब्द, पापा ने हाथ मे पाँच का नोट पकङाया बोला जाकर दे दो, मुझे कम लगा पर पापा ने कहा,नहीं सब इतना ही देते हैं,मैंने झिझकते हुए उसे पाँच का नोट पकङाया और उसने लाखों की मुस्कान बिखेर दी, पहली बार उसे एक अलग व्यक्ति की तरह देखा अब तक मेरा विश्वास था कि 'ये चीनी शक्ल वाले एक ही साँचे में ढले होते हैं, एक ही फैक्टरी में बने होते हैं'। ऐसे हुआ मेरा पहला परिचय बहादुर के साथ।
क्रमशः

रूपेश पाण्डेय 'रूपक' #Art #story #Hindi #literature
बहादुर- भाग १
रात के घुप्प अंधेरे में जब दूर तक कोई हलचल न हो रही हो, कुछ हवाऐं थक कर सो गई हों और कुछ मानो नटखट सहेलियों की तरह जाने क्या बतियाती दबी आवाज़ में ठिठोली करती हों,पत्ते की हल्की सरसराहट मानो माँ की तरह डपट रहीं हों, दूर से आती कुत्तों की हूँक,रात के सम्मोहन को भंग करती, मानो शांत जल में एक वलय बना और वहीं लुप्त हो गया , लगता जैसे प्रर्कति के ये काले धूसर रंग भी कल्पना का कितना सुंदर संसार रच सकते हैं,दूर से आती नींद की परी जैसे सारे संसार में निद्रा रस बिखेर रही हो....तभी अचानक किताबों के पन्ने बार बार मेरे बालों पर चोट करने लगे मैं निढाल सा पङा नींद की परी के आगोश मैं जा रहा था और.... फिर वही आवाज़ ,रात के अंधेरे को चीरती,सारे सम्मोहनों को भंग करती,अंततः मेरे कान के परदों तक आ पहुंची , झटके से नींद टूटी तो देखा टेबल घङी के काँटे नब्बे अंश का कोण बना रहे थे 3:00 AM!! मैंने चौंक कर देखा और सर पकङ कर बैठ गया , उठकर गैस पर चाय रखी और हाथ में किताब लेकर पन्ने पलटने लगा-"तीन चेप्टर्स, और..सिर्फ तीन घण्टे!!" तभी फिर वही कर्कश आवाज़ पर इस बार उसको धन्यवाद करने को जी चाह रहा था,मैंने बङे से मग में चाय भरी टेंशन मैं टेबल की और बढा किंतु इस बार उसी कर्कश सीटी की आवाज़ के साथ डण्डे की आवाज़ ने मेरा धैर्य तोङ दिया ,यकायक ध्यान उसी पुरानी घटना की तरफ चला गया जिसे मैं कम से कम इस वक्त तो याद नहीं करना चाह रहा था। 'बहादुर' नाम था उसका, उसके इसी नाम के चार भाई और हैं ऐसा उसने बताया था ,माँ बाप ने ये नाम नहीं रखा, कब पङा याद नहीं, लोगों ने कभी नाम पूछना भी नहीं चाहा बस शक्ल देखी और बोल दिया 'बहादुर' उसने कभी विरोध नहीं किया, "क्या फर्क पङता है शाब नाम कुछ भी हो और.. वैशै भी मेरा अशली नाम ज़रा मुश्किल है...", मेरी ज़िद पर उसने बताया पर मैं एक बार भी न दोहरा सका।हमारे जीवन मैं कई ऐसी घटनाएं होती हैं जिनके होने का एहसास भी हम लंबे समय तक नहीं कर पाते,हमारे लिए वो छोटी और बेमानी होती हैं, और एक दिन अचानक वो हमारे सामने आकर खङी हो जाती हैं,चौंकाती हुई,या डराती हुई, पर ये घटना कुछ अलग थी 'मुस्काती' हुई, मेरा उससे पहला परिचय तब हुआ जब वो मेरे जीवन का अठारह साल तक हिस्सा रह चुका था, बात कुछ अजीब थी पर सच, 'बहादुर' सोसाईटी का वाचमैन, पेहले वो पगार पर था, पिछले साल सोसाईटी की अंदरुनी कलह की वजह से वो भंग हो गई और साथ ही बहादुर की नौकरी भी गई, पर बरसों के लगाव और पेट की भूख ने नया रास्ता खोज लिया, रात भर चौकीदरी और घर घर से महीने में एक बार पैसे लेना, काम में वो पक्का ईमानदार था इसका गवाह मैं रह चुका था,मेरा इंजीनियरिंग का वो पहला साल, और वो पहला एक्ज़ाम जब साल भर की मस्ती ने नाकों चने चबवा दिए थे, रात भर जागकर पढने के अलावा कोई चारा न था और वो मेरा पहला अनुभव था बहादुर की मौजूदगी के एहसास का,रात की नींद और पढाई की ज़ंग में बहादुर की हर घण्टे आती सीटी और डण्डे की आवाज़ मेरे लिए अलार्म का काम करती,जब मैं पहली बार उससे मिला भरोसा करना मुश्किल था कि ये वही सीटीधारी-डण्डापटक प्राणी है जिसकी एक आवाज़ बङे बङों का दिल दहला दे, बमुश्किल 5ft कद, छोटी आँखे,मानो रात भर जागने के लिए ही बनाया हो भगवान ने, और वो मुस्कान, मानो उसके व्यक्तित्व का एक हिस्सा हो,वो मुस्कान जो मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गई,दुख सुख,पाने खोने से परे ,सबके लिए एक जैसी, खुशबू की तरह बिखरती, किसी संक्रामक रोग की तरह फैलती,"शलाम शाब" उसके पहले दो शब्द, पापा ने हाथ मे पाँच का नोट पकङाया बोला जाकर दे दो, मुझे कम लगा पर पापा ने कहा,नहीं सब इतना ही देते हैं,मैंने झिझकते हुए उसे पाँच का नोट पकङाया और उसने लाखों की मुस्कान बिखेर दी, पहली बार उसे एक अलग व्यक्ति की तरह देखा अब तक मेरा विश्वास था कि 'ये चीनी शक्ल वाले एक ही साँचे में ढले होते हैं, एक ही फैक्टरी में बने होते हैं'। ऐसे हुआ मेरा पहला परिचय बहादुर के साथ।
क्रमशः

रूपेश पाण्डेय 'रूपक' #Art #story #Hindi #literature
rupeshp1969

Rupesh P

New Creator