ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिज्चिनुतं शरण्यम्। भृत्यार्तिहं प्रणतपालभवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्।। संसार में जीवात्मा का परिभव, अवमान निरन्तर होता रहता है। संसार-कर्तृक नाना हेतुओं द्वारा जीवात्मा का अनन्त, महा-महिम वैभव, उसकी अखण्डता, अजरता, अमरता, अनंतता, सर्वबोधता सदा ही पद-दलित होती रहती है। जिस जीवात्मा ने भगवत-पाद-पंकजों का ध्यान किया, उसके संसार-कर्तृक अवमान का अन्त हो जाता है। भगवत्-चरणारविन्दों का ध्यान करने से बुद्धि शुद्ध हो जाती है, बुद्धि शुद्ध होने पर अविद्या एवं तत्कार्यात्मक समूल विश्व-प्रपंच का उन्मूलन हो जाता है; विश्व प्रपंच का उन्मूलन होने पर संसार-कर्तृक अवमानना के कारण का ही बोध हो जाता है। भगवत्-चरणारविन्द ‘अभीष्टदोहम्’ हैं। सम्पूर्ण अभीष्ट के दाता हैं। अनिष्ट-निवृत्ति एवं परमानन्द-प्राप्ति ही अभीष्ट है। दरिद्रता, दीनता, परतन्त्रता, आधि-व्याधि, शोक-संतान ही अनिष्ट है। भगवत्-चरणारविन्द ‘तीर्थास्पदं’ हैं, तारनेवाला ही तीर्थ है ‘तारत्येनस इति तीर्थः’ सब तीर्थों का मूल गंगा है। सर्वतीर्थमयी भगवती भागीरथी गंगा साक्षात् ब्रह्मद्रव है। अनन्त-ब्रह्माण्ड-नायक, सर्वाधिष्ठान, सच्चिदानन्दघन, परब्रह्म ही नीर बनकर गंगारूप में प्रवाहित है। महापुरुषवन्दनाश्लोकः