बढ़ती जनसंख्या यहां , करती रही प्रहार । इच्छाओं ने और भी , बढ़ा दिए व्यापार ।। १ चीर हरण खुद का करे , फैशन देते नाम । नज़र पराई जो पड़े , कर देते संग्राम ।। २ तन का कपडा काट कर , काटे अब वो जेब । हम कुछ पहचाने नहीं , हुनर कहे या ऐब ।। ३ देकर पैसे चार के , लेते एक समान । बनकर बुद्धू भी यहां , दिखलाए वो शान ।। ४ ऐसे कपड़े ले रहे , तन भी सके न ढाक । मन सुंदर समझे नहीं , तन सुंदर की धाक । ५ मारकीन पूछे नहीं , सबको भाए सिल्क । आज दूधिया दे रहे , गऊ छाप का मिल्क ।। ६ दाना दाना चुग रहे , पंक्षी जैसे आज । ऐसे हम कंगाल है , जिसका नही इलाज ।। ७ महँगाई का है नही , यहाँ कोई उपाय । जनता मर मर कह रही , हमको लियो बचाय ।। ८ भूखे प्यासे रोज हम, मजदूरो को जात । फिर भी बच्चों को कभी , न मिलता दूध भात ।। ९ चाहे जो कुछ त्याग दे , रहे बुरा ही हाल । विपदा हम गरीब की , मुश्किल में है दाल ।। १० महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR बढ़ती जनसंख्या यहां , करती रही प्रहार । इच्छाओं ने और भी , बढ़ा दिए व्यापार ।। १ चीर हरण खुद का करे , फैशन देते नाम । नज़र पराई जो पड़े , कर देते संग्राम ।। २ तन का कपडा काट कर , काटे अब वो जेब । हम कुछ पहचाने नहीं , हुनर कहे या ऐब ।। ३