नगर में दर ब दर हूं सब मुझे मज़दूर कहते हैं मुझे लाचार कहते है मुझे मजबूर कहते हैं कमाने चार पैसे मै वतन से दूर आया था नही था शौक़ मुझको हो के मै मजबूर आया था थी पहले भुखमरी ,बेरोज़गारी अब महामारी ना जाने देश में इन सब के खातिर क्या थी तय्यारी ना पैसा है न साधन है न ही कोई ठिकाना है हमें अब अपने घर को लौट कर पैदल ही जाना है फसे थे जो पराए देश में सब घर चले आए मगर मज़दूर अपने देश में ही ठोकरें खाए वो तपती धूप में बच्चे हमारे भूखे प्यासे हैं हुकूमत की तरफ से बस दिलासे ही दिलासे हैं है जिनके पास कुर्सी सब अदा उनकी निराली है है काला दाल में कुछ, या के पूरी दाल काली है कमा कर जो दिया है वो मुझी पर खर्च कर दो ना बहोत जल्दी से भर जाते हैं मेरे घाव ,भर दो ना Fahmi Ali ✍️ मज़दूर