कभी तुम भी तो सोचो ना.. कि क्या होता ग़र हम पहले मिले होते?.... ..नादाँ सी उस उम्र में, मैं होती तुम्हारा पहला प्यार और तुम मेरे जीवन का पहला दुलार। (अनुशीर्षक में पढ़ें) एक दशक बस अंत होने को है और मैं इस 'नियरिंग थर्टीज़' की उम्र में 'टीनएजर्स' की भाँति सोच रही हूँ 'हमारे' बारे में। काश! हम उसी किशोरावस्था में एक दूसरे से अजनबी बनकर मिले होते। तब इंटरनेट का ज़माना बस शुरू ही हुआ था। सबके घर कंप्यूटर भी न हुआ करता था और अगर था भी तो इंटरनेट जैसी वस्तु प्रिविलेज मानी जाती थी। साइबर कैफ़े में ३० मिनट इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए दस रुपये लगते थे। तब न तो था स्मार्ट फोन और न व्हाट्सएप्प जैसा कोई सुपरफास्ट बातों का मीडियम। था तो बस yahoo मैसेंजर और gtalk। या फिर e-mails से ही खुश हो जाते थे। वो ज़माना जब हम किसी चैटिंग वेबसाइट पर मिलते और email id शेयर करके हफ़्ते में एक दूसरे से केवल वीकेंड पे बात कर पाते। प्रोजेक्ट या ग्रुप स्टडिज़ के बहाने घर से निकलते और मिलते एक दूसरे को शनिवार को ठीक शाम के ६ बजे। उन ३० मिनटों में हफ़्ते भर की बातें करते और पूरा हफ़्ता लिस्ट बनाते कि एक दूसरे से कहना क्या है।