दोहा किसको कितने याद हैं , अपने अब अधिकार । आते ही घर नव वधू , बदले सुनों विचार ।।१ हाथ थाम जब तक चले , तब तक वही विचार । पर आते ही माँगते , फिर अपना अधिकार ।।२ उसके मन की लालसा , करवाती संहार । मानव ही शैतान बन , करता अत्याचार ।।३ माया की चलकर डगर , भूले सब व्यहवार । अपनों पर ही कर रहे , देखो अत्याचार ।।४ प्रभु की सेवा भी तभी , होती सुनो कबूल । मातु-पिता के पथ यहाँ , जो सुत हरता शूल ।। सेवा अपने मातु की , जो सुत करता देख । बदले उसके भाग्य की , सुन गिरधर भी रेख ।। जो भी मानव कर रहा , जीवन में संघर्ष । उसको ही उपहार में , मिलता देखो हर्ष ।। मातु-पिता आशीष से , मन में छाया हर्ष । उनके ही यह कर्म है , पाया मैं उत्कर्ष ।। समय नही रुकता कभी , कर ले मानव भान । इससे जग में हो सदा , मानव की पहचान ।। समय जिसे चाहे यहाँ , करे उसे बलवान । इसके आगे हैं झुके , देख स्वयं भगवान ।। अपने ही करने लगे , देखो आज प्रहार । मन्द-मन्द मुस्का रहे , खोकर शुद्ध विचार ।। ०४/१०/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR दोहा किसको कितने याद हैं , अपने अब अधिकार । आते ही घर नव वधू , बदले सुनों विचार ।।१ हाथ थाम जब तक चले , तब तक वही विचार ।