सदियों से चली आ रही, कैसी ये रीत है। सारे जहासे हटकर, अपनी ये प्रीत है। जात धर्म का खेल निराला, किसने रचा संसार में। इंसानियत को मार काटकर, बहाया खुन कि नदियॉ में। कौन है काला, कौन गोरा, कौन अमीर या गरीब। सच्चाई को अपनाओगे तो, पाओगे सबको अपने करीब। जात पात में उलझोगे तो, कही ना पहूँच पाओगे। साथ किसीका चाहोगे तब, अकेले ही रह जाओगे। इसी लिए कहता हुँ यारो, भुल जाओ ऐसी रीत को। घुलमिल कर रहना सिखो, और बढाओ प्रीत को। ©Dr Mangesh Kankonkar Discrimination (भेदभाव)