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इस दुनिया के होने पे मुझे बिलकुल भी अचरज नहीं होता

इस दुनिया के होने पे मुझे बिलकुल भी अचरज नहीं होता ,
और नाही इसके " ऐसे " होने पे  ताज़ूब का ख्याल ही पैदा होता ।
कि किसी के भी हिस्से में भी जो ये जिम्मा होता ,
ना इस से बेहतर कुछ पश्माने ए शमा होता ।
कि मंजर भी यही होता , उसका बायां भी यूंही होता ,
हां माटी के ही बुत होते  , रंग भी चहुं ओर यही पुता होता ,
जज़्बात इसी सरीखे भरा होता , हालात भी कुछ यूंही होता ।
द्वंद परस्पर हर ख्याल में , असमंजस का हाल भी यूंही होता , सवाल  यही , भ्रमों का मायाजाल  यही होता ।
सारा ताना बाना और फ़साना भी यूंही सजा होता ,
 जाल बिछे इस मार्ग में धाराओं का प्रवाह यही, बह चलने का द्वार यही होता ।
राह में ठहराव भी ऐसे बने होते , लगाव भी यही होता अलगाव भी यूंही होता,
भोग और वियोग के जड़ों का जोड़ ऐसे ही एक  होता ,
भय और लोभ का गठजोड़ का सोज भी यूंही बुना होता ।

हां! होते ऐसे ही मौजूद साधन भी प्रसाधन भी , भरमाने को ललचाने को ,
कृपार्थ भी कृतार्थ भी , अर्थ और  स्वार्थ यही , पदार्थ यही  होता ,
दृष्टा समक्ष खुद से खुदी छले जाने का विहंगम दृश्य भी यही हो होता।

बेबस हालातों से लड़ती भूख भी होता , आंखे बंद  खुदाई ढूंढती भीड़ की दौड़ यही सम्मलित होता ,
और इन दृश्यों के दर्शक भी सभी , मंजर ये सारे सुलझाने में लगे पथप्रदर्शक भी,  यही होता। # मोक्ष मीमांसा
इस दुनिया के होने पे मुझे बिलकुल भी अचरज नहीं होता ,
और नाही इसके " ऐसे " होने पे  ताज़ूब का ख्याल ही पैदा होता ।
कि किसी के भी हिस्से में भी जो ये जिम्मा होता ,
ना इस से बेहतर कुछ पश्माने ए शमा होता ।
कि मंजर भी यही होता , उसका बायां भी यूंही होता ,
हां माटी के ही बुत होते  , रंग भी चहुं ओर यही पुता होता ,
जज़्बात इसी सरीखे भरा होता , हालात भी कुछ यूंही होता ।
द्वंद परस्पर हर ख्याल में , असमंजस का हाल भी यूंही होता , सवाल  यही , भ्रमों का मायाजाल  यही होता ।
सारा ताना बाना और फ़साना भी यूंही सजा होता ,
 जाल बिछे इस मार्ग में धाराओं का प्रवाह यही, बह चलने का द्वार यही होता ।
राह में ठहराव भी ऐसे बने होते , लगाव भी यही होता अलगाव भी यूंही होता,
भोग और वियोग के जड़ों का जोड़ ऐसे ही एक  होता ,
भय और लोभ का गठजोड़ का सोज भी यूंही बुना होता ।

हां! होते ऐसे ही मौजूद साधन भी प्रसाधन भी , भरमाने को ललचाने को ,
कृपार्थ भी कृतार्थ भी , अर्थ और  स्वार्थ यही , पदार्थ यही  होता ,
दृष्टा समक्ष खुद से खुदी छले जाने का विहंगम दृश्य भी यही हो होता।

बेबस हालातों से लड़ती भूख भी होता , आंखे बंद  खुदाई ढूंढती भीड़ की दौड़ यही सम्मलित होता ,
और इन दृश्यों के दर्शक भी सभी , मंजर ये सारे सुलझाने में लगे पथप्रदर्शक भी,  यही होता। # मोक्ष मीमांसा
sudhanshu7324

Sudhanshu

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