Nojoto: Largest Storytelling Platform

बहुत कम लोग हैं जो अपनी ही ज़िंदगी को बिना लीपा- प

बहुत कम लोग हैं जो अपनी ही ज़िंदगी को बिना लीपा- पोती के बिंदास काग़ज़ पर उतार पाए हैं, ऐसे लोगों में एक थीं - अमृता प्रीतम
आज उनका जन्मदिवस है,  तो सोचा उनकी जीवनी में से कुछ सांझा करूँ
 
हम सब लिखने में जितना ध्यान देते है उस से दस गुना शायद पढ़ने/सुनने में लगाना चाहिए। और मेरे को लगता है ये  छोटी से अंश उनकी पुस्तक से हमको सोचने और पढ़ने के लिए प्रेरित करेगा।। 


उनकी आत्मकथा " रसीदी टिकट" सच मे आपको एक अलग तरह का अनुभव देती  है 
उसमें से एक अंश आज शेयर कर रहा हूँ जो बताता है कि उन्होंने जाति - धर्म को नहीं जिया, उन्होंने सिर्फ़ अपने भीतर की अमृता को जिया..... 
"यह एक वह पल है... जब घर में तो नहीं, पर रसोई में नानी का राज होता था। सबसे पहला विद्रोह मैंने उसके राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बरतनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ़ तब परछत्ती से उतारे जाते थे जब पिताजी के मुसलमान दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज-धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे। सो, उन तीन गिलासों के साथ मैं भी एक चौथे गिलास की तरह रिल-मिल गई और हम चारों नानी से लड़ पड़े। वे गिलास भी बाक़ी बरतनों को नहीं छ सकते थे, मैंने भी ज़िद पकड़ ली कि मैं और किसी बरतन में न पानी पीऊंगी, न दूध-चाय। नानी उन गिलासों को ख़ाली रख सकती थी, लेकिन मुझे भूखा या प्यासा नहीं रख सकती थी, सो बात पिताजी तक पहुंच गई। पिताजी को इससे पहले पता नहीं था कि कुछ गिलास इस तरह अलग रखे जाते हैं। उन्हें मालूम हुआ, तो मेरा विद्रोह सफल हो गया। फिर न कोई बरतन हिन्दू रहा, न मुसलमान। उस पल न नानी जानती थी, न मैं, कि बड़े होकर ज़िन्दगी के कई बरस जिससे मैं इश्क करूंगी वह उसी मज़हब का होगा, जिस मज़हब के लोगों के लिए घर के बरतन भी अलग रख दिए जाते थे। होनी का मुंह अभी देखा नहीं था, पर सोचती हूं, उस पल कौन जाने उसकी ही परछाईं थी, जो बचपन में देखी थी..."
बहुत कम लोग हैं जो अपनी ही ज़िंदगी को बिना लीपा- पोती के बिंदास काग़ज़ पर उतार पाए हैं, ऐसे लोगों में एक थीं - अमृता प्रीतम
आज उनका जन्मदिवस है,  तो सोचा उनकी जीवनी में से कुछ सांझा करूँ
 
हम सब लिखने में जितना ध्यान देते है उस से दस गुना शायद पढ़ने/सुनने में लगाना चाहिए। और मेरे को लगता है ये  छोटी से अंश उनकी पुस्तक से हमको सोचने और पढ़ने के लिए प्रेरित करेगा।। 


उनकी आत्मकथा " रसीदी टिकट" सच मे आपको एक अलग तरह का अनुभव देती  है 
उसमें से एक अंश आज शेयर कर रहा हूँ जो बताता है कि उन्होंने जाति - धर्म को नहीं जिया, उन्होंने सिर्फ़ अपने भीतर की अमृता को जिया..... 
"यह एक वह पल है... जब घर में तो नहीं, पर रसोई में नानी का राज होता था। सबसे पहला विद्रोह मैंने उसके राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बरतनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ़ तब परछत्ती से उतारे जाते थे जब पिताजी के मुसलमान दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज-धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे। सो, उन तीन गिलासों के साथ मैं भी एक चौथे गिलास की तरह रिल-मिल गई और हम चारों नानी से लड़ पड़े। वे गिलास भी बाक़ी बरतनों को नहीं छ सकते थे, मैंने भी ज़िद पकड़ ली कि मैं और किसी बरतन में न पानी पीऊंगी, न दूध-चाय। नानी उन गिलासों को ख़ाली रख सकती थी, लेकिन मुझे भूखा या प्यासा नहीं रख सकती थी, सो बात पिताजी तक पहुंच गई। पिताजी को इससे पहले पता नहीं था कि कुछ गिलास इस तरह अलग रखे जाते हैं। उन्हें मालूम हुआ, तो मेरा विद्रोह सफल हो गया। फिर न कोई बरतन हिन्दू रहा, न मुसलमान। उस पल न नानी जानती थी, न मैं, कि बड़े होकर ज़िन्दगी के कई बरस जिससे मैं इश्क करूंगी वह उसी मज़हब का होगा, जिस मज़हब के लोगों के लिए घर के बरतन भी अलग रख दिए जाते थे। होनी का मुंह अभी देखा नहीं था, पर सोचती हूं, उस पल कौन जाने उसकी ही परछाईं थी, जो बचपन में देखी थी..."
vishalvaid9376

Vishal Vaid

New Creator