गुजर गया ये जीवन मंथन में । रखा नहीं अब कुछ सुन चिंतन में । नहीं हुआ वो अब तक जो सोचा- भरूँ भला कैसे रस बंधन में ।। मिलें हमें भी कुछ रिश्तें ऐसे । लगी हुई हो अब गाठें जैसे । करे सभी अब वो खींचा तानी - अलग-अलग हों सब धारे जैसे ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR गुजर गया ये जीवन मंथन में । रखा नहीं अब कुछ सुन चिंतन में । नहीं हुआ वो अब तक जो सोचा- भरूँ भला कैसे रस बंधन में ।। मिलें हमें भी कुछ रिश्तें ऐसे । लगी हुई हो अब गाठें जैसे । करे सभी अब वो खींचा तानी -