उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा, मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा । मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ, प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ? अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही, साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही । सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ, तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ । - मैथलीशरण गुप्त ©Arpit Mishra मैथलीशरण गुप्त