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" हमारे सोशल मीडियाई लम्हें ..... (०२) "

" हमारे सोशल मीडियाई लम्हें  ..... (०२) "

 
                      मित्रता कौन जाने कैसी होती है. कभी मित्रता आदर्शों की सिरमौर होती है तो कभी अविश्वासों की उपन्यास. न जाने इस एक ही जिंदगी में कितने जन मैत्री की दहलीज पर कदम रखते हैं, जिनमें कुछ साथ चलते हैं तो कुछ छूट जाते हैं. अक्सर बांहों में बांहें डालकर दोस्ती चित्रपट का वो गाना भी भावनात्मकता में  शामिल होने पर गुनगुनाया ही जाता है... "तू कल चला जायेगा तो मैं क्या करूँगा. तू याद बहुत आयेगा तो मैं क्या करूँगा." पर ऐसे में भी कुछ की दास्ताँने- दोस्ती केवल स्वप्नेत्तर गाथा ही होती है. जिन रोमांच को लोग फिल्मों में भी यदा-कदा ही महसूस कर पाते होंगे, उसे कभी-कभार ही एक अदने से अनामी लोग जी पाते हैं. उनकी जिंदगी में कभी-कभी उन्हें लगता है, कि उनके हाथ तो कुछ है ही नहीं, नाउम्मीदी उम्मीद कब बन जाती है पता ही नहीं चलता. मानौ उनकी जिंदगी के रंगमंच का निर्देशन, नियंत्रण एवं संचालन कोई और ही कर रहा है. पर आज के दौर की सोशल-मीडियाई जिंदगी भी क्या ऐसे ही कुछ रोमांचकताओं का आनन्द दे सकती है, क्या इस दुनिया में भी आप करिश्माई किस्मत को जीने वाले हो सकते हैं? 
                          पता नहीं, पर हमारे लिए तो शायद हाॅं. बिना देखे, बिना जाने, केवल साझी आकांक्षाओं के मातहत मिलना और फिर किसी करीबी रिश्ते - सा भावनात्मक जुड़ाव हो जाना. वो कहते हैं ना कि... "प्यार होता नहीं प्यार हो जाता है." सच कितना प्यारा अनुभव होता है ना कि जहाँ लोग साथ रहकर भी एक - दूसरे को नहीं समझ पाते, वहाँ इस इंटरनेट की दुनिया में बने कुछ अदृश्य एवं आभासी रिश्ते अदब, हया और मोहब्बत के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि वास्तविक दुनिया भी इनकी माधुर्यता में लजा जाये. ऐसी सौम्य संगतियों में बिछड़ना भी यहाँ बहुत ही आसान होता है, लेकिन इनका पुन: मिलना कल्पनेत्तर खुशियों का मेघराग  भी बन जाता है. किसी ऐसी ही काल्पनिक रोमांच की कथा का एक अध्याय हमसे भी जुड़ता है. कहाँ द्वादश के वियोग में हम किसी को अपने जीवन में केवल हितगामी साधन तक सीमित कर देते थे और कहाँ इसी संकीर्णताओं में यश पराग प्रेम में भाव संयोजित कर ले गया. २०२० की दीवाली दुर्घटना, हमारे संगणकों, मोबाईल जैसे संपर्क यंत्र विसर्जन योग्य हो गये. सप्ताह भर के बाद की चेतन्योपरान्त की मानसिक स्थितियां अवसादों के चरम पर आ गई. हमारे अध्ययन और वार्ता अवरोधों की भरमार से अध्ययन एवं मैत्रियन दोनों गुमनामी स्वप्नों के भग्नातीत हो गये. स्मृतियों की दुनिया समझ ही नहीं आ रही थी कि यह विक्षोहों में अन्तर्मन के उदासी की मालिन्य  मेटने आती है या फिर उस मालिन्यता का आभास कराने.
                          भावों की आकुलता, भाग्य पर दोषारोपण, सामाजिक परिवेशों में फिर से जीने को लेकर शिथिलता ने हमें वास्तव में मूर्त बना दिया. स्वयं को भूल जाने की कयावाद में हर पल बस इसी जद्दोजहद में गुजरता रहा. अंतस के अन्तर्पटल की खामोशियों में सिमटी चीत्कार तो एक ओर इस जिंदगी के अंत को स्वीकार ही कर चुकी थी. जिवित था तो महज़ एक हाड़ - मांस का पार्थिव शरीर और कुछ नहीं.  एक उक्ति हम बचपन से सुनते आ रहे थे कि "पुरुषोद्भाग्योदय: देवौं न जानम्." इसका हमारे जीवन में  महज़ एक सूक्ति का ही स्थान नहीं है वरन् यह इससे भी आगे बढ़कर हमारी नैराश्यता में आशाओं के आखिरी किरण का भी स्थान रखती है. इससे हताशा की स्थितियों में स्वयं के अहर्निश संघर्षशील बने रहने की प्रेरणा संचरित होती रहती है. कभी - कभी इसके परिणाम इतने अप्रत्याशित एवं सुखद होते हैं कि वह अव्यक्त, अतुलनीय एवं अपरिभाषित प्रतीत होती है. आज का दिन ऐसा लग रहा है मानौ किसी बिछड़े हुए युग्मित तारे को उसका युग्म मिल गया हो, उसके इस जीवन की मानौ कोई अधूरी तलाश पूर्ण हो गई हो.
हम नहीं जानते लोगों को अनैच्छिक वियोगों का सामना क्यों करना पड़ता है, परन्तु इसके बाद के होने वाले पुनर्मिलन का आह्लाद, आलिंगन, नेत्रों का मेघराग गायन, संबंधों में पारस्परिक नि:श्छल समर्पण आदि अपनेआप में अनन्यजीवी बने रहने के भावों में जीवन्तता से ओतप्रोत हो उठते हैं. इनका अहसास पाना सच में वर्तमान में भले आत्मगौरव व आत्मश्लाघन का अत्यन्त हर्षमय विषय हो लेकिन इसके भीतर की पीड़ाओं के विषाद वर्तमान की समृतियों में रोमांचकता भरने के बावजूद एक गहरी तल्ख़ कसक ताउम्र के लिए बन ही जाते हैं.

#hindi 
#life
" हमारे सोशल मीडियाई लम्हें  ..... (०२) "

 
                      मित्रता कौन जाने कैसी होती है. कभी मित्रता आदर्शों की सिरमौर होती है तो कभी अविश्वासों की उपन्यास. न जाने इस एक ही जिंदगी में कितने जन मैत्री की दहलीज पर कदम रखते हैं, जिनमें कुछ साथ चलते हैं तो कुछ छूट जाते हैं. अक्सर बांहों में बांहें डालकर दोस्ती चित्रपट का वो गाना भी भावनात्मकता में  शामिल होने पर गुनगुनाया ही जाता है... "तू कल चला जायेगा तो मैं क्या करूँगा. तू याद बहुत आयेगा तो मैं क्या करूँगा." पर ऐसे में भी कुछ की दास्ताँने- दोस्ती केवल स्वप्नेत्तर गाथा ही होती है. जिन रोमांच को लोग फिल्मों में भी यदा-कदा ही महसूस कर पाते होंगे, उसे कभी-कभार ही एक अदने से अनामी लोग जी पाते हैं. उनकी जिंदगी में कभी-कभी उन्हें लगता है, कि उनके हाथ तो कुछ है ही नहीं, नाउम्मीदी उम्मीद कब बन जाती है पता ही नहीं चलता. मानौ उनकी जिंदगी के रंगमंच का निर्देशन, नियंत्रण एवं संचालन कोई और ही कर रहा है. पर आज के दौर की सोशल-मीडियाई जिंदगी भी क्या ऐसे ही कुछ रोमांचकताओं का आनन्द दे सकती है, क्या इस दुनिया में भी आप करिश्माई किस्मत को जीने वाले हो सकते हैं? 
                          पता नहीं, पर हमारे लिए तो शायद हाॅं. बिना देखे, बिना जाने, केवल साझी आकांक्षाओं के मातहत मिलना और फिर किसी करीबी रिश्ते - सा भावनात्मक जुड़ाव हो जाना. वो कहते हैं ना कि... "प्यार होता नहीं प्यार हो जाता है." सच कितना प्यारा अनुभव होता है ना कि जहाँ लोग साथ रहकर भी एक - दूसरे को नहीं समझ पाते, वहाँ इस इंटरनेट की दुनिया में बने कुछ अदृश्य एवं आभासी रिश्ते अदब, हया और मोहब्बत के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि वास्तविक दुनिया भी इनकी माधुर्यता में लजा जाये. ऐसी सौम्य संगतियों में बिछड़ना भी यहाँ बहुत ही आसान होता है, लेकिन इनका पुन: मिलना कल्पनेत्तर खुशियों का मेघराग  भी बन जाता है. किसी ऐसी ही काल्पनिक रोमांच की कथा का एक अध्याय हमसे भी जुड़ता है. कहाँ द्वादश के वियोग में हम किसी को अपने जीवन में केवल हितगामी साधन तक सीमित कर देते थे और कहाँ इसी संकीर्णताओं में यश पराग प्रेम में भाव संयोजित कर ले गया. २०२० की दीवाली दुर्घटना, हमारे संगणकों, मोबाईल जैसे संपर्क यंत्र विसर्जन योग्य हो गये. सप्ताह भर के बाद की चेतन्योपरान्त की मानसिक स्थितियां अवसादों के चरम पर आ गई. हमारे अध्ययन और वार्ता अवरोधों की भरमार से अध्ययन एवं मैत्रियन दोनों गुमनामी स्वप्नों के भग्नातीत हो गये. स्मृतियों की दुनिया समझ ही नहीं आ रही थी कि यह विक्षोहों में अन्तर्मन के उदासी की मालिन्य  मेटने आती है या फिर उस मालिन्यता का आभास कराने.
                          भावों की आकुलता, भाग्य पर दोषारोपण, सामाजिक परिवेशों में फिर से जीने को लेकर शिथिलता ने हमें वास्तव में मूर्त बना दिया. स्वयं को भूल जाने की कयावाद में हर पल बस इसी जद्दोजहद में गुजरता रहा. अंतस के अन्तर्पटल की खामोशियों में सिमटी चीत्कार तो एक ओर इस जिंदगी के अंत को स्वीकार ही कर चुकी थी. जिवित था तो महज़ एक हाड़ - मांस का पार्थिव शरीर और कुछ नहीं.  एक उक्ति हम बचपन से सुनते आ रहे थे कि "पुरुषोद्भाग्योदय: देवौं न जानम्." इसका हमारे जीवन में  महज़ एक सूक्ति का ही स्थान नहीं है वरन् यह इससे भी आगे बढ़कर हमारी नैराश्यता में आशाओं के आखिरी किरण का भी स्थान रखती है. इससे हताशा की स्थितियों में स्वयं के अहर्निश संघर्षशील बने रहने की प्रेरणा संचरित होती रहती है. कभी - कभी इसके परिणाम इतने अप्रत्याशित एवं सुखद होते हैं कि वह अव्यक्त, अतुलनीय एवं अपरिभाषित प्रतीत होती है. आज का दिन ऐसा लग रहा है मानौ किसी बिछड़े हुए युग्मित तारे को उसका युग्म मिल गया हो, उसके इस जीवन की मानौ कोई अधूरी तलाश पूर्ण हो गई हो.
हम नहीं जानते लोगों को अनैच्छिक वियोगों का सामना क्यों करना पड़ता है, परन्तु इसके बाद के होने वाले पुनर्मिलन का आह्लाद, आलिंगन, नेत्रों का मेघराग गायन, संबंधों में पारस्परिक नि:श्छल समर्पण आदि अपनेआप में अनन्यजीवी बने रहने के भावों में जीवन्तता से ओतप्रोत हो उठते हैं. इनका अहसास पाना सच में वर्तमान में भले आत्मगौरव व आत्मश्लाघन का अत्यन्त हर्षमय विषय हो लेकिन इसके भीतर की पीड़ाओं के विषाद वर्तमान की समृतियों में रोमांचकता भरने के बावजूद एक गहरी तल्ख़ कसक ताउम्र के लिए बन ही जाते हैं.

#hindi 
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मित्रता कौन जाने कैसी होती है. कभी मित्रता आदर्शों की सिरमौर होती है तो कभी अविश्वासों की उपन्यास. न जाने इस एक ही जिंदगी में कितने जन मैत्री की दहलीज पर कदम रखते हैं, जिनमें कुछ साथ चलते हैं तो कुछ छूट जाते हैं. अक्सर बांहों में बांहें डालकर दोस्ती चित्रपट का वो गाना भी भावनात्मकता में शामिल होने पर गुनगुनाया ही जाता है... "तू कल चला जायेगा तो मैं क्या करूँगा. तू याद बहुत आयेगा तो मैं क्या करूँगा." पर ऐसे में भी कुछ की दास्ताँने- दोस्ती केवल स्वप्नेत्तर गाथा ही होती है. जिन रोमांच को लोग फिल्मों में भी यदा-कदा ही महसूस कर पाते होंगे, उसे कभी-कभार ही एक अदने से अनामी लोग जी पाते हैं. उनकी जिंदगी में कभी-कभी उन्हें लगता है, कि उनके हाथ तो कुछ है ही नहीं, नाउम्मीदी उम्मीद कब बन जाती है पता ही नहीं चलता. मानौ उनकी जिंदगी के रंगमंच का निर्देशन, नियंत्रण एवं संचालन कोई और ही कर रहा है. पर आज के दौर की सोशल-मीडियाई जिंदगी भी क्या ऐसे ही कुछ रोमांचकताओं का आनन्द दे सकती है, क्या इस दुनिया में भी आप करिश्माई किस्मत को जीने वाले हो सकते हैं? पता नहीं, पर हमारे लिए तो शायद हाॅं. बिना देखे, बिना जाने, केवल साझी आकांक्षाओं के मातहत मिलना और फिर किसी करीबी रिश्ते - सा भावनात्मक जुड़ाव हो जाना. वो कहते हैं ना कि... "प्यार होता नहीं प्यार हो जाता है." सच कितना प्यारा अनुभव होता है ना कि जहाँ लोग साथ रहकर भी एक - दूसरे को नहीं समझ पाते, वहाँ इस इंटरनेट की दुनिया में बने कुछ अदृश्य एवं आभासी रिश्ते अदब, हया और मोहब्बत के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि वास्तविक दुनिया भी इनकी माधुर्यता में लजा जाये. ऐसी सौम्य संगतियों में बिछड़ना भी यहाँ बहुत ही आसान होता है, लेकिन इनका पुन: मिलना कल्पनेत्तर खुशियों का मेघराग भी बन जाता है. किसी ऐसी ही काल्पनिक रोमांच की कथा का एक अध्याय हमसे भी जुड़ता है. कहाँ द्वादश के वियोग में हम किसी को अपने जीवन में केवल हितगामी साधन तक सीमित कर देते थे और कहाँ इसी संकीर्णताओं में यश पराग प्रेम में भाव संयोजित कर ले गया. २०२० की दीवाली दुर्घटना, हमारे संगणकों, मोबाईल जैसे संपर्क यंत्र विसर्जन योग्य हो गये. सप्ताह भर के बाद की चेतन्योपरान्त की मानसिक स्थितियां अवसादों के चरम पर आ गई. हमारे अध्ययन और वार्ता अवरोधों की भरमार से अध्ययन एवं मैत्रियन दोनों गुमनामी स्वप्नों के भग्नातीत हो गये. स्मृतियों की दुनिया समझ ही नहीं आ रही थी कि यह विक्षोहों में अन्तर्मन के उदासी की मालिन्य मेटने आती है या फिर उस मालिन्यता का आभास कराने. भावों की आकुलता, भाग्य पर दोषारोपण, सामाजिक परिवेशों में फिर से जीने को लेकर शिथिलता ने हमें वास्तव में मूर्त बना दिया. स्वयं को भूल जाने की कयावाद में हर पल बस इसी जद्दोजहद में गुजरता रहा. अंतस के अन्तर्पटल की खामोशियों में सिमटी चीत्कार तो एक ओर इस जिंदगी के अंत को स्वीकार ही कर चुकी थी. जिवित था तो महज़ एक हाड़ - मांस का पार्थिव शरीर और कुछ नहीं. एक उक्ति हम बचपन से सुनते आ रहे थे कि "पुरुषोद्भाग्योदय: देवौं न जानम्." इसका हमारे जीवन में महज़ एक सूक्ति का ही स्थान नहीं है वरन् यह इससे भी आगे बढ़कर हमारी नैराश्यता में आशाओं के आखिरी किरण का भी स्थान रखती है. इससे हताशा की स्थितियों में स्वयं के अहर्निश संघर्षशील बने रहने की प्रेरणा संचरित होती रहती है. कभी - कभी इसके परिणाम इतने अप्रत्याशित एवं सुखद होते हैं कि वह अव्यक्त, अतुलनीय एवं अपरिभाषित प्रतीत होती है. आज का दिन ऐसा लग रहा है मानौ किसी बिछड़े हुए युग्मित तारे को उसका युग्म मिल गया हो, उसके इस जीवन की मानौ कोई अधूरी तलाश पूर्ण हो गई हो. हम नहीं जानते लोगों को अनैच्छिक वियोगों का सामना क्यों करना पड़ता है, परन्तु इसके बाद के होने वाले पुनर्मिलन का आह्लाद, आलिंगन, नेत्रों का मेघराग गायन, संबंधों में पारस्परिक नि:श्छल समर्पण आदि अपनेआप में अनन्यजीवी बने रहने के भावों में जीवन्तता से ओतप्रोत हो उठते हैं. इनका अहसास पाना सच में वर्तमान में भले आत्मगौरव व आत्मश्लाघन का अत्यन्त हर्षमय विषय हो लेकिन इसके भीतर की पीड़ाओं के विषाद वर्तमान की समृतियों में रोमांचकता भरने के बावजूद एक गहरी तल्ख़ कसक ताउम्र के लिए बन ही जाते हैं. #Hindi life #SocialMedia #experience #friends