Nojoto: Largest Storytelling Platform

आधुनिक स्वार्थी सोच मानो पढ़कर बिखरे हुए से अखबार

आधुनिक स्वार्थी सोच मानो पढ़कर बिखरे हुए से अखबार की तरह उपेक्षित,असहाय बुढ़ापा फिर क्यूँकर कर हो? जो मान सम्मान भावनाओं का महत्व न समझे, उस जीवन में 
कृतज्ञता फिर क्यूँकर हो?
 
विशिष्ट से बोझ बनने तक का सफर तय करते चले, ऐसी उपयोगितावादी निष्ठुर सोच के लिए
आत्मीयता फिर क्यूँकर हो? 
काश उन झुर्रियों में खुद को देखे कोई शायद "ओल्ड एज होम" की 
आवश्यकता फिर क्यूँकर हो
यदि भावनात्मक संरक्षण ना हो तो कड़ी में पिरोने वाले हाथों के प्रति, मात्र 
औपचारिकता फिर क्योंकर हो? 
तब लेखिनी कहती है.. 
बेबस-ए-निगाह की संजीदगी को अपनाते चलें, 
गर ना हो बुजुर्गता का सम्मान, निजसम्मान की अधिकारिता फिर क्यूँकर हो.. 
बे-गैरत नजरों के ख़िलाफ़ वृद्धता आत्मनिर्भर हो विवशता फिर क्यूँकर हो?
यदि प्रत्येक जीवन की संध्या सुनिश्चित है  और कालचक्र की पुनरावृत्ति स्मरण रहे
तब बेबसों का वृद्धों का तिरस्कार फिर क्योंकर हो? 

प्रकृति का सनातन-सत्य,सहज स्वीकार करते चलें, 
जीर्णक्षीर्ण,अशक्त भले ही हो काया, आत्मबल की अक्षमता फिर क्योंकर हो......

©Sudha Tripathi आधुनिक स्वार्थी सोच मानो पढ़कर बिखरे हुए से अखबार की तरह उपेक्षित, असहाय  बुढ़ापा फिर क्यूँकर कर हो?
 
जो मान सम्मान भावनाओं का महत्व न समझे, उस जीवन में कृतज्ञता फिर क्यूँकर हो?
 
विशिष्ट से बोझ बनने तक का सफर तय करते चले, ऐसी उपयोगितावादी निष्ठुर सोच के लिए,आत्मीयता फिर क्यूँकर हो? 

 काश उन झुर्रियों में खुद को देखे कोई शायद "ओल्ड एज होम" की आवश्यकता फिर क्यूँकर हो
आधुनिक स्वार्थी सोच मानो पढ़कर बिखरे हुए से अखबार की तरह उपेक्षित,असहाय बुढ़ापा फिर क्यूँकर कर हो? जो मान सम्मान भावनाओं का महत्व न समझे, उस जीवन में 
कृतज्ञता फिर क्यूँकर हो?
 
विशिष्ट से बोझ बनने तक का सफर तय करते चले, ऐसी उपयोगितावादी निष्ठुर सोच के लिए
आत्मीयता फिर क्यूँकर हो? 
काश उन झुर्रियों में खुद को देखे कोई शायद "ओल्ड एज होम" की 
आवश्यकता फिर क्यूँकर हो
यदि भावनात्मक संरक्षण ना हो तो कड़ी में पिरोने वाले हाथों के प्रति, मात्र 
औपचारिकता फिर क्योंकर हो? 
तब लेखिनी कहती है.. 
बेबस-ए-निगाह की संजीदगी को अपनाते चलें, 
गर ना हो बुजुर्गता का सम्मान, निजसम्मान की अधिकारिता फिर क्यूँकर हो.. 
बे-गैरत नजरों के ख़िलाफ़ वृद्धता आत्मनिर्भर हो विवशता फिर क्यूँकर हो?
यदि प्रत्येक जीवन की संध्या सुनिश्चित है  और कालचक्र की पुनरावृत्ति स्मरण रहे
तब बेबसों का वृद्धों का तिरस्कार फिर क्योंकर हो? 

प्रकृति का सनातन-सत्य,सहज स्वीकार करते चलें, 
जीर्णक्षीर्ण,अशक्त भले ही हो काया, आत्मबल की अक्षमता फिर क्योंकर हो......

©Sudha Tripathi आधुनिक स्वार्थी सोच मानो पढ़कर बिखरे हुए से अखबार की तरह उपेक्षित, असहाय  बुढ़ापा फिर क्यूँकर कर हो?
 
जो मान सम्मान भावनाओं का महत्व न समझे, उस जीवन में कृतज्ञता फिर क्यूँकर हो?
 
विशिष्ट से बोझ बनने तक का सफर तय करते चले, ऐसी उपयोगितावादी निष्ठुर सोच के लिए,आत्मीयता फिर क्यूँकर हो? 

 काश उन झुर्रियों में खुद को देखे कोई शायद "ओल्ड एज होम" की आवश्यकता फिर क्यूँकर हो