ना नर मे कोई राम बचा। नारी मे ना कोई सीता है। ना धरा बचाने की खातिर वीष कोई शंकर पीता है।। ना श्री कृषण सा धर्म अधर्म का किसी मे ज्ञान बचा है।। ना हरिश्चंद का सत्य का ज्ञान किसी मे रचा बसा है।। ना गौतम बुध्ह जैसा धर्य बचा। ना नानक जैसा परम त्याग। बस नाच रही है नर के भीतर प्रतिशोध की कत्ले आग। फिर बौलौ की उस स्वर्णिम युग का क्या अंश तुममे।। की किसकी धुन मे तुम रमकर फूले नही समाते हो। तुम खुद को श्रेष्ठ बताते हो तुम खुद को श्रेष्ठ बताते हो ©MAKBUL KHAN KAYAMKHANI ना नर मे कोई राम बचा। नारी मे ना कोई सीता है। ना धरा बचाने की खातिर वीष कोई शंकर पीता है।। ना श्री कृषण सा धर्म अधर्म का किसी मे ज्ञान बचा है।। ना हरिश्चंद का सत्य का ज्ञान