क्या घर क्या बज़ार चीज़ो के संग्रह से पटा पडाहै ज़ो स्वपन हमने देखे थे कभी भविष्य के लिये वो सब कुछ आज यथार्थ मय हो रहा है देह से देह भले ही जुड़ जाए पर मन से मन तो दूर होता जा रहा है ज़ो अमानत हमने सौपी थीं कभी सँभालने के लिये. उसे आज वो उसे लौटाने से मुकर रहा है ©Parasram Arora क्या घर क्या बाजार.......