शब्द नहीं, मैं सार हूँ।। मैं उगते सूरज की लाली हूँ, पतझड़ में फूलों की डाली हूँ। मिथक नहीं, न आडम्बर कोई, मैं सच लिखनेवाली स्याही हूँ। मैं डरा नहीं कभी झुका नहीं, तेरे संग चलता एक राही हूँ। दुख-सुख का है पुलिंदा जीवन, बाधाओं को भी काट चला मैं। राहों में बिखरे थे रंग कई, खुशियां उनमे से छांट चला मैं। सूरज भी उगता और ढलता है, मैं भी ज्वार और भाटा हूँ। कभी शोर बन खूब गरजता, कभी मौत का भी सन्नाटा हूँ। सिक्के का दो पहलू जीवन है, कभी चित कभी ये पट हो जाता। चलना रुकना तो पूरक हैं, कभी रफ्तार कभी मैं वट हो जाता। तेरी क्रीड़ा में शामिल हो जाता, बन क्रोध कभी धधकता हूँ। तेरी वाणी का माधुर्य लिए, बन बच्चा कभी बहलता हूँ। तेरी कलम से उपजा हूँ मैं, कविता छंद कहानी कहो। कभी बना रश्मिरथी मुझे, लहु में अपने रवानी भरो। तेरे सपनो की उड़ान भी मैं, मैं ही बगिया का माली हूँ। मैं उगते सूरज की लाली हूँ, पतझड़ में फूलों की डाली हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" शब्द नहीं, मैं सार हूँ।। मैं उगते सूरज की लाली हूँ, पतझड़ में फूलों की डाली हूँ। मिथक नहीं, न आडम्बर कोई, मैं सच लिखनेवाली स्याही हूँ। मैं डरा नहीं कभी झुका नहीं,