भेद-भाव की नगरी का है ये दोष खामखां नही मुझमें इतना रोष, कभी जात-पात की डगर तो कभी रुप-रंग मे बंटे गाँव-शहर, कई लुटे,तो कई टूटे न जाने कितने अपने रह गए पीछे छुटे, ममता की आँचल भी सूनी पड़ गई , ये कैसी आग लगी मन मे, जो इंसानियत ही पूरी सड़ गई ? जो सीखा था, उसे खो दिया पूण्य-पाप का लेखा-जोखा, सब कुछ आज धो दिया, ज्यों का त्यों रहा, बस कुछ लकीरों मे सिमट मिटता भी नहीं मिटाए, आखिर आया कहाँ से ये कपट? भेद-भाव की नगरी का ऐसा है ये दोष व्यथा सारे बताऊँ कैसे, कम पड़ रहे है शब्दकोष.... #DiscriminatingSociety