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परिंदो का मजहब, वतन हैं दरख्तों, फूलों का चमन ना

परिंदो का मजहब, वतन
हैं दरख्तों, फूलों का चमन

ना वे इबादत करतें हैं ना फाका
उनको मिला आजाद गगन।

मंदिर से उड़ मस्जिद पर जा बैठे
झोपड़ी से फिर ऊँचे भवन।

चारा दाना ही हैं उनकी मंजिल
उसके लिये करते वो जतन।
परिंदो का मजहब, वतन
हैं दरख्तों, फूलों का चमन

©Kamlesh Kandpal
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