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हर टपकती बूंद का संगीत हूं मैं, जग जिसे ना

हर   टपकती  बूंद  का  संगीत  हूं  मैं,
जग जिसे ना गा सका  वो गीत  हूं मैं।
जो  हृदय  तक  ना पहुंच पायी कभी,
अनछुई  औ  अनकही वो प्रीत हूं मैं।

ढह   रही   दीवार  कच्ची  भरभरा  कर,
एक  झोंका कह गया कुछ सरसरा कर।
पांव  के    छाले   हमारे   कौन   गिनता,
सूने  आंगन  की  सिसकती  रीत  हूं  मैं।

कौंधती बिजली तड़प कर गिर रही है,
औ  घटायें  मेघ  बनकर  घिर  रही  है।
रात्रि की  निस्तब्धता  को  भेदती  जो 
वेदनाओ  की  प्रबलतम  चीख  हूं  मैं।

अब  उठा  लो अपने कंधों पे मुझे तुम,
इक कहानी सी बना दो अब मुझे तुम।
कोई   पढ़   लेगा,   मुझे  शायद  कही।
कोरे  पन्नों  पर   गढ़ी   तस्वीर   हूं   मैं। 

                                              मनीष।

©Manish ghazipuri #कसक जीवन की
हर   टपकती  बूंद  का  संगीत  हूं  मैं,
जग जिसे ना गा सका  वो गीत  हूं मैं।
जो  हृदय  तक  ना पहुंच पायी कभी,
अनछुई  औ  अनकही वो प्रीत हूं मैं।

ढह   रही   दीवार  कच्ची  भरभरा  कर,
एक  झोंका कह गया कुछ सरसरा कर।
पांव  के    छाले   हमारे   कौन   गिनता,
सूने  आंगन  की  सिसकती  रीत  हूं  मैं।

कौंधती बिजली तड़प कर गिर रही है,
औ  घटायें  मेघ  बनकर  घिर  रही  है।
रात्रि की  निस्तब्धता  को  भेदती  जो 
वेदनाओ  की  प्रबलतम  चीख  हूं  मैं।

अब  उठा  लो अपने कंधों पे मुझे तुम,
इक कहानी सी बना दो अब मुझे तुम।
कोई   पढ़   लेगा,   मुझे  शायद  कही।
कोरे  पन्नों  पर   गढ़ी   तस्वीर   हूं   मैं। 

                                              मनीष।

©Manish ghazipuri #कसक जीवन की