क्या खोया क्या पाया।। एक सुबह की चाह में मैं रात भर रोता रहा, आई जब मिलने सुबह थक हार मैं सोता रहा। एक गणित ये ज़िन्दगी, मूक थी सिखला रही। सत्य दर्पण हाथ ले, दो टूक थी दिखला रही। यायावरों की एक टोली, जो मेरा हिस्सा रहा। लग रही हर शाम बोली, जो मेरा किस्सा रहा। चंद लकीरें हाथ की, सू-राह से भटकी मिलीं। कट चुकी जैसे पतंगें, डाल पे अटकी मिलीं। ना ओर कोई छोर कोई, संग पवन के चल रहा। स्वप्न के भी गर्भ में, नव-स्वप्न कोई पल रहा। सार्थक भी स्वस्प्न था, और स्वप्न जीवन ढाँपता। सच की धरा जो पांव डाले, पांव भी था कांपता। अंगद नहीं ना मेघनाद, जो धरा मैं भांपता। पांव जमाने की ललक में, था जमीं मैं नापता। जा कहाँ स्थिर हुआ मैं, मृत्यु-आहट दर है पड़ी। जिस मृत्यु से भागा किया, वो आन सम्मुख है खड़ी। पड़ा निर्विकार स्थूल मैं, यम-पाश को हूँ देखता। क्या लिया और क्या दिया, ये सोच मैं हूँ झेंपता। अब बैठ हूँ मैं सोचता ऐसा क्यूँ होता रहा। एक सुबह की चाह में मैं रात भर रोता रहा। ©रजनीश "स्वछंद" क्या खोया क्या पाया।। एक सुबह की चाह में मैं रात भर रोता रहा, आई जब मिलने सुबह थक हार मैं सोता रहा। एक गणित ये ज़िन्दगी, मूक थी सिखला रही। सत्य दर्पण हाथ ले,