हवाओं ने हर बार दिए को बुझा दिया, हर कदम पर मेरी कोशिश ठहर गुजरी। खुशबू की आस में कांटे ही हाथ आए, ज़िंदगी मेरी बस यूँ ही सफर गुजरी। चमकते थे सितारे, पर रौशनी न मिली, हर सुबह की तलाश में हर रात सहर गुजरी। जो चाहा, वो कभी मुकम्मल न हुआ, दुआओं की उम्र भी बेअसर गुजरी। गुनाहों का हिसाब शायद बाकी था, हर सजा मेरे हिस्से में बार-बार गुजरी। जिन्हें हमनवाज़ समझा था कभी, वो भी मेरी राह से बेखबर गुजरी। ©नवनीत ठाकुर ज़िंदगी मेरी बस यूँ ही सफर गुजरी।