चंद दिन आँसुओं का उधार सा रहा, फिर हर कोई हँसने को तैयार सा रहा। जो रोए थे सबसे आगे खड़े हुए, आज महफिलों में फिर शुमार सा रहा। जो कल थे संग, आज परछाईं भी नहीं, दुआ के लफ्ज़ तक अब सुनाई नहीं। श्मशान की राख अभी ठंडी भी न हुई, और उनके लहज़े में वो गहराई नहीं। जिसे कंधों पे उठाया था रोते हुए, उसी का ज़िक्र भी अब कोई करता नहीं। क़ब्र पर दिया जलाकर गए थे जो, आज उस राह से भी कोई गुज़रता नहीं। यूँ ही मिट्टी में दफ़न होती हैं यादें, यूँ ही रिश्ते भी गर्द बन के उड़ जाते हैं। क़ब्र की मिट्टी अभी सूखी भी नहीं, और लोग नए फ़साने बना जाते हैं। ©नवनीत ठाकुर #नवनीतठाकुर