मर्ज ए इश्क भी कमवक्त एक अलग किस्म की लाइलाज़ बिमारी है, कहीं किसी की खुदगर्जी ही चलती और कहीं किसी की खुद्दारी है। मर्ज ए इश्क था, बेरुखीयो की सीढ़ी, हम कहीं खुद ही चढ़ बैठे थे, हमने तो उन्हें अपना समझा, फिर उनके आगे हाथ बढ़ाया, शायद वह कही गलत नब्ज़ पकड़ बैठे थे, अपना तो हमेशा दस्तूर और फितरत रहा, हर एक रश्म शाने शौकत से अदायगी का, मगर हुनरमंद तो कहीं वो ही निकले जनाब, जो एक एक करके सारे साक्ष्य मिटाके चले गए। आशुतोष शुक्ल (उत्प्रेरक) ©ashutosh6665 #Night #poem #poerty