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ग़ज़ल :- क्यूँ रहे हो रोक मुझको खुदखुशी से । भर गया

ग़ज़ल :-
क्यूँ रहे हो रोक मुझको खुदखुशी से ।
भर गया है जी हमारा ज़िन्दगी से ।।१

डर रहा हूँ आजकल की रोशनी से ।
ख्वाब़ आखों में बसे है बन्दगी से ।।२

बात कम करना यहाँ खा लो कसम तुम ।
तर सभी की है जुबां अब चाशनी से ।।३

तोड़ कर साँसे जहाँ को छोड़ दे तू ।
आ रही आवाज़ ऐसी ज़िन्दगी से ।।४

चल रहा हूँ आज मैं नज़रें बचाकर ।
मिल न जाए फिर नज़र उस महजबी से ।।५

मौत को देखा पलट कर हर दफ़ा मैं ।
हाथ आई आज तो वह बंदगी से ।।६

मिल गये हैं दो बदन अब उस जहाँ में ।
देखता है यह जमाना अब जमी से ।।७

हो रहा है इस तरह देखो उँजाला ।
चाँद भी मदहोश है अब चाँदनी से ।।८

हो गया जबसे जुदा हमदर्द अपना ।
उठ गया विश्वास अपना आशिकी से ।।९

इस तरह दहशत बसी है सरजमी पर ।
की डरा है आदमी अब आदमी से ।।१०

हर खुशी को देखकर अब काँप उठता ।
इस तरह नफ़रत हुई है अब खुशी से ।।११

२०/१०/२०२३     -    महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR पोस्ट नं द़ो  ~   ग़ज़ल :-

क्यूँ रहे हो रोक मुझको खुदखुशी से ।
भर गया है जी हमारा ज़िन्दगी से ।।१

डर रहा हूँ आजकल की रोशनी से ।
ख्वाब़ आखों में बसे है बन्दगी से ।।२
ग़ज़ल :-
क्यूँ रहे हो रोक मुझको खुदखुशी से ।
भर गया है जी हमारा ज़िन्दगी से ।।१

डर रहा हूँ आजकल की रोशनी से ।
ख्वाब़ आखों में बसे है बन्दगी से ।।२

बात कम करना यहाँ खा लो कसम तुम ।
तर सभी की है जुबां अब चाशनी से ।।३

तोड़ कर साँसे जहाँ को छोड़ दे तू ।
आ रही आवाज़ ऐसी ज़िन्दगी से ।।४

चल रहा हूँ आज मैं नज़रें बचाकर ।
मिल न जाए फिर नज़र उस महजबी से ।।५

मौत को देखा पलट कर हर दफ़ा मैं ।
हाथ आई आज तो वह बंदगी से ।।६

मिल गये हैं दो बदन अब उस जहाँ में ।
देखता है यह जमाना अब जमी से ।।७

हो रहा है इस तरह देखो उँजाला ।
चाँद भी मदहोश है अब चाँदनी से ।।८

हो गया जबसे जुदा हमदर्द अपना ।
उठ गया विश्वास अपना आशिकी से ।।९

इस तरह दहशत बसी है सरजमी पर ।
की डरा है आदमी अब आदमी से ।।१०

हर खुशी को देखकर अब काँप उठता ।
इस तरह नफ़रत हुई है अब खुशी से ।।११

२०/१०/२०२३     -    महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR पोस्ट नं द़ो  ~   ग़ज़ल :-

क्यूँ रहे हो रोक मुझको खुदखुशी से ।
भर गया है जी हमारा ज़िन्दगी से ।।१

डर रहा हूँ आजकल की रोशनी से ।
ख्वाब़ आखों में बसे है बन्दगी से ।।२