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*** कविता *** *** एक सोच *** " कभी कहीं मिलों त

*** कविता *** 
*** एक सोच *** 

" कभी कहीं मिलों तुम ,
साथ हाथ के बैठो तुम , 
फिर कुछ गुफ्तगू हो ,
फिर किसी बात पे ,
गर्म चाय की खुशबू हो ,
कुछ घुट तुम पियो ,
कुछ घुट मैं पिऊ ,
ऐसे में हमारी कुछ ,
नोक-झोक फिर टकरार हो ,
फिर रुठना फिर मनाना ,
ये सिलसिला यूं चले ,
ख्वाब आंखों में समंदर सा ,
एहसास उमरता हैं कि ,
फिर क्या बात की जाये ,
हसरतें काफिर सा यूं ही ,
हर रोज किसी शख़्स के ,
बहाने रोज मिलने आते हैं . 

                         --- रबिन्द्र राम— % & *** कविता *** 
*** एक सोच *** 

" कभी कहीं मिलों तुम ,
साथ हाथ के बैठो तुम , 
फिर कुछ गुफ्तगू हो ,
फिर किसी बात पे ,
गर्म चाय की खुशबू हो ,
*** कविता *** 
*** एक सोच *** 

" कभी कहीं मिलों तुम ,
साथ हाथ के बैठो तुम , 
फिर कुछ गुफ्तगू हो ,
फिर किसी बात पे ,
गर्म चाय की खुशबू हो ,
कुछ घुट तुम पियो ,
कुछ घुट मैं पिऊ ,
ऐसे में हमारी कुछ ,
नोक-झोक फिर टकरार हो ,
फिर रुठना फिर मनाना ,
ये सिलसिला यूं चले ,
ख्वाब आंखों में समंदर सा ,
एहसास उमरता हैं कि ,
फिर क्या बात की जाये ,
हसरतें काफिर सा यूं ही ,
हर रोज किसी शख़्स के ,
बहाने रोज मिलने आते हैं . 

                         --- रबिन्द्र राम— % & *** कविता *** 
*** एक सोच *** 

" कभी कहीं मिलों तुम ,
साथ हाथ के बैठो तुम , 
फिर कुछ गुफ्तगू हो ,
फिर किसी बात पे ,
गर्म चाय की खुशबू हो ,

*** कविता *** *** एक सोच *** " कभी कहीं मिलों तुम , साथ हाथ के बैठो तुम , फिर कुछ गुफ्तगू हो , फिर किसी बात पे , गर्म चाय की खुशबू हो ,