*** कविता *** *** एक सोच *** " कभी कहीं मिलों तुम , साथ हाथ के बैठो तुम , फिर कुछ गुफ्तगू हो , फिर किसी बात पे , गर्म चाय की खुशबू हो , कुछ घुट तुम पियो , कुछ घुट मैं पिऊ , ऐसे में हमारी कुछ , नोक-झोक फिर टकरार हो , फिर रुठना फिर मनाना , ये सिलसिला यूं चले , ख्वाब आंखों में समंदर सा , एहसास उमरता हैं कि , फिर क्या बात की जाये , हसरतें काफिर सा यूं ही , हर रोज किसी शख़्स के , बहाने रोज मिलने आते हैं . --- रबिन्द्र राम— % & *** कविता *** *** एक सोच *** " कभी कहीं मिलों तुम , साथ हाथ के बैठो तुम , फिर कुछ गुफ्तगू हो , फिर किसी बात पे , गर्म चाय की खुशबू हो ,