एक आग लिए मैं चलता हूँ। चिंगारी से बोलो क्या डरना, एक आग लिए मैं चलता हूँ। गरल-पान कर दुनिया का, मुंह झाग लिए मैं चलता हूँ। इंसां होने का जुर्म किया, एक दाग लिए मैं चलता हूँ। कांटों को सहेजे दामन में, एक बाग लिए मैं चलता हूँ। कभी प्रीत कभी विरह गीत, एक राग लिए मैं चलता हूँ। विषथैली दबा कर वाणी में, एक नाग लिए मैं चलता हूँ। अवशेष पड़े इस बीहड़ में, इंसां जाग लिए मैं चलता हूँ। सत्य की प्रखर इस अग्नि में, सब भाग लिए मैं चलता हूँ। मूक बधिर इस इंद्रप्रस्थ में, एक काग लिए मैं चलता हूँ। हूँ ज़िद्दी बड़ा अल्हड़ भी मैं, बन्दा घाघ लिए मैं चलता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" एक आग लिए मैं चलता हूँ। चिंगारी से बोलो क्या डरना, एक आग लिए मैं चलता हूँ। गरल-पान कर दुनिया का, मुंह झाग लिए मैं चलता हूँ।