जब आवाज़ आती उसकी घुंघरू की मेरे कानों में, दबे पांव खिसक लेता मैं दूसरे के मकानों में। मेरी हिम्मत तो देखो आगे उसके, ताले लग जाते हैं मेरी जुबानों में।। चाह के भी न बोल पाऊं मैं, उलझ के रह जाता मैं उसके फालतू फसानों में।। तरस गया सुनने को मैं प्यार की इक बोली, ढूंढ़ने बैठ जाता मैं खुद को पुराने गानों में।। क्या दास्तां सुनाऊं मैं अपनी बेगम की, कूंट जाती मुझे किसी न किसी बहानो में।। भंवर में फंस चुकी ज़िन्दगी मेरी, खुशियां अब कहां ढूंढू आके बिरानो में।। सोचता हूं आखिर ये बंधन बना किस खातिर, जब किच किच होती हर घरानों में।। WRITTEN BY(SANTOSH VERMA) आजमगढ़ वाले खुद की ज़ुबानी मेरी दास्तां