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अगर दो दिन पहले बनती गुझिया मुझको न मिलती है रंग


अगर दो दिन पहले बनती
गुझिया मुझको न मिलती है
रंग खेलने के चक्कर में गांव
की वह लडकी खूब चिढती है
इस कमरे से उस कमरे की 
टोली की खूब चौकसी लगती है
 मम्मी पापा भैया,सबका चेहरा ,
हां दीदी कितनी सुंदर लगती है
मिट्टी कीचड की भी होली देखो
रंगो की होली ऐसी भी रहती है
पापड चिप्स खाते घूम-फिर 
छीना झपटी चलती रहती है
गांव के एक छोर पर वहीं
  एक होलिका अपनी जलती है
भर भर उमंगे जीवन की ये
एक पतवार में बढती रहती है।।

©Shilpa yadav
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