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अतिसोच समझ के चलना पड़ता है अपने अश्रु छिपा के निक

अतिसोच समझ के चलना पड़ता है
अपने अश्रु छिपा के निकलना पड़ता है
यहाँ तो सुनी दीवारें भी भड़क जाती है 
इन सबसे दबके रहना पड़ता है

साथ घटित हुए अतीत का अंगारा पीना पड़ता है
दानव नोचे जिस्म को,हरदिन मरकर जीना पड़ता है
इस मानवता की बर्बरता में भगवान भी खो जाते है 
राजा के हर हट के आगे, बिगुल बजाना पड़ता है

©Jitendra kumar sarkar
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