भूख नहीं लगती अब तो स्वाद चला गया, अच्छा - खासा मेरा तो हिसाब चला गया! तासीर अब खुद की मैं बिगाड़ने लगा हूं , मयखाने में हर रोज़ जाम मारने लगा हूं! यूं तो अब दुनियादारी भी समझ आने लगी, नाम तेरे की आवाज भी आग लगाने लगी ! कोरे कागजों को काली स्याही बहाने लगी, एक के बाद एक ग़ज़ल, नजम आने लगी ! अब आदत "सुशील" की रोज़ सताने लगी, मयखाने की बूंदे ही मेरी प्यास बुझाने लगी! भूख नहीं लगती अब तो स्वाद चला गया, अच्छा - खासा मेरा तो हिसाब चला गया! तासीर अब खुद की मैं बिगड़ने लगा हूं , मयखाने में हर रोज़ जाम मारने लगा हूं! यूं तो अब दुनियादारी भी समझ आने लगी, नाम तेरे की आवाज भी आग लगाने लगी !