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दुःख... कितना अप्रत्याशित होता है और कितन

 दुःख... 
       कितना अप्रत्याशित होता है और कितना सशक्त होता है जो किसी के भी जीवन मे अचानक से आता है और आपके सुख की बुनियाद को हिला देता है। आप नीःशब्द रह जाते हैं कि सारा परिदृश्य कैसे बदल गया। निश्चतता और निश्चिंतता दोनों ही एक प्रकार के भ्रम हैं। समय की प्रकृति को जानते हुए भी हम सब कितना कुछ पहले से ही सुनिश्चित कर लेते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं कि जीवन हमारी योजना के अनुसार ही चलेगा और हम जीने की मधुर तंद्रा में तल्लीन हो जाते हैं। 
दुःख इसी प्रकार तंद्रा को तोड़ने वाली आँधी होती है। जो की किसी चंचल बच्चे की तरह होता है जो आता है और अचानक से हमे धप्पा देकर हमें चौंकाते हुए कहता है, "
"देखो मैं यहीं हूँ, तुम मुझे भूल गए न।" और हम ठगे के ठगे रह जाते हैं, ,,क्योंकि सुख की उस ऊष्मा की गर्माहट में हम  दुःख के स्पर्श को भुला चुके होते हैं। वास्तव में सहजता से जीना तभी संभव होता  है जब हम दुःखो के पदचिन्हों को हमारे ज़हन की दीवारों पर स्पष्टता से अंकित करे और जीवन रूपी रथ में जिसकी मंज़िल कभी सुख होती और कभी दुख जो अपने समय से आती जाती है 
जो जीवन रूपी रथ ठीक उसी प्रकार बिना रुके चलता जिस प्रकार 
"सूर्य रथ'"
अर्थार्थ दुख और सुख एक अनुभव है जो कभी हंसाती तो कभी यह रुलाती है।।
बस शर्त यह है कि अड़े रहो, डटे रहो, खड़े रहो और आगे बढ़ते रहो।

©एकांत में दार्शनिक!(shiv)
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