जीवन के इस भाग-दौड़ में,दो चार कदम साथ चलके, मेरी नजरें बचा के वो चुरा लेता हैं, अपने हिस्से के दो चार पल हमारी जिंदगी से, अपनी निजी खुशियों के लिए, कुछ संजोयी यादों और बातों के लिए, कुछ सँवरते ख्वाब से बारातों के लिए। तो क्यूँ स्नेह सरिता सिमट जाती है, उसके लिए फैलायी बाहें, खुद से ही लिपट जाती हैं। उसके ओर बढ़े कदम, उत्साहहीन हो कर लौट आते हैं। वो घड़ियाँ बिन जीये ही बीत जाती हैं, संजोयी हुई स्नेह संवेदनायें रीत जाती हैं। बातें अनकही ही रह जाती हैं, चाहतें यादें बन के रह जाती हैं। साझा जिंदगी से खुद के हिस्से के पल जीने पर, मेरा यूँ चुप हो जाना उसे अनोखा लगता है। पर इस तरह से यूँ पल चुरा लेना, न जाने क्यूँ, मुझे धोखा-सा लगता है। जीवन के इस भाग-दौड़ में, दो चार कदम साथ चलके, मेरी नजरें बचा के वो चुरा लेता हैं, अपने हिस्से के दो चार पल हमारी जिंदगी से, अपनी निजी खुशियों के लिए, कुछ संजोयी यादों और बातों के लिए, कुछ सँवरते ख्वाब से बारातों के लिए। तो क्यूँ स्नेह सरिता सिमट जाती है,