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निमेषकों के नीर-धार से, मनुज ने कितने अर्घ्य सींचे

निमेषकों के नीर-धार से,
मनुज ने कितने अर्घ्य सींचे,
प्रस्तर पूजित निष्ठुर देवों के,
कितनी बार हैं पलक पसीजे।
                                   साहस ने कभी मुठ्ठियाँ भींची,
                                   कभी भय से ये पलकें मिंची,
                                   बार-बार स्खलित हुआ धैर्य,
                                   आशा की खंडित रश्मियाँ भींगी।
किये पे अपने मनुज पछता ले,
चाहे अविरल नीर बहा ले,
नहीं कभी कालचक्र रूकेगा,
नहीं कभी नियति पिघलेगी।
                                     यदि जीवन ने काव्य रचे हैं,
                                     तो मृत्यु महाकाव्य रचेगी,
                                     जन्म दे कर तुम भूले हो,
                                     कैसे यह सृष्टि भूलेगी।
सृजन और संहार चक्र में,
किस विधि विधान में खोये हो?
प्रलय का ताण्डव चल रहा,
किस अटूट ध्यान में खोये हो?
                                      मानव निर्मित मंदिरों में ,
                                      चिरनिद्रा में कैसे सो गए?
                                      पाषाणों में रहते रहते,
                                      प्रभु! क्या तुम भी पाषाण हो गए? निमेषकों के नीर-धार से,
मनुज ने कितने अर्घ्य सींचे,
प्रस्तर पूजित निष्ठुर देवों के,
कितनी बार हैं पलक पसीजे।
साहस ने कभी मुठ्ठियाँ भींची,
कभी भय से ये पलकें मिंची,
बार-बार स्खलित हुआ धैर्य,
आशा की खंडित रश्मियाँ भींगी।
निमेषकों के नीर-धार से,
मनुज ने कितने अर्घ्य सींचे,
प्रस्तर पूजित निष्ठुर देवों के,
कितनी बार हैं पलक पसीजे।
                                   साहस ने कभी मुठ्ठियाँ भींची,
                                   कभी भय से ये पलकें मिंची,
                                   बार-बार स्खलित हुआ धैर्य,
                                   आशा की खंडित रश्मियाँ भींगी।
किये पे अपने मनुज पछता ले,
चाहे अविरल नीर बहा ले,
नहीं कभी कालचक्र रूकेगा,
नहीं कभी नियति पिघलेगी।
                                     यदि जीवन ने काव्य रचे हैं,
                                     तो मृत्यु महाकाव्य रचेगी,
                                     जन्म दे कर तुम भूले हो,
                                     कैसे यह सृष्टि भूलेगी।
सृजन और संहार चक्र में,
किस विधि विधान में खोये हो?
प्रलय का ताण्डव चल रहा,
किस अटूट ध्यान में खोये हो?
                                      मानव निर्मित मंदिरों में ,
                                      चिरनिद्रा में कैसे सो गए?
                                      पाषाणों में रहते रहते,
                                      प्रभु! क्या तुम भी पाषाण हो गए? निमेषकों के नीर-धार से,
मनुज ने कितने अर्घ्य सींचे,
प्रस्तर पूजित निष्ठुर देवों के,
कितनी बार हैं पलक पसीजे।
साहस ने कभी मुठ्ठियाँ भींची,
कभी भय से ये पलकें मिंची,
बार-बार स्खलित हुआ धैर्य,
आशा की खंडित रश्मियाँ भींगी।

निमेषकों के नीर-धार से, मनुज ने कितने अर्घ्य सींचे, प्रस्तर पूजित निष्ठुर देवों के, कितनी बार हैं पलक पसीजे। साहस ने कभी मुठ्ठियाँ भींची, कभी भय से ये पलकें मिंची, बार-बार स्खलित हुआ धैर्य, आशा की खंडित रश्मियाँ भींगी। #hindipoetry #yqdidi