नदी और स्त्री दोनों, इस जगत के पालनहार, इक सृष्टि को जन्म दे, तो दूजा करती उद्धार। नदी पतित पावनी तो, स्त्री वसुंधरा कहलाती, दोनों की प्रकृति सम, दोनों का हृदय विशाल। एक पृथ्वी उर्वर करे तो, दूजा पृथ्वी की धुरी है, दोनों बिना इस सृष्टि की कल्पना भी अधुरी है। नदी प्रचंड रूप धरे तो, पल में तबाही लाती है, स्त्री का प्रचंड रूप, दूर्गा-काली कहलाती है। 👉 ये हमारे द्वारा आयोजित प्रतियोगिता संख्या - 17. है, आप सब को दिए गए शीर्षक के साथ Collab करना है..! 👉 आप अपनी रचनाओं को आठ पंक्तियों (8) में लिखें..! 👉Collab करने के बाद Comment box में Done जरूर लिखें,और Comment box में अनुचित शब्दों का प्रयोग न करें..! 👉 प्रतियोगिता में भाग लेने की अंतिम समय सीमा कल सुबह 11 बजे तक की है..!