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In caption.... महक— % & तुमसे हर बार मिलकर जब मैं

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महक— % & तुमसे हर बार मिलकर जब मैं वापस लौट आती थी, अपने घर, तो कई दिनों तक तुम्हारी बातों के साथ साथ कुछ खुशबू भी काफी दिन तक मेरे साथ रहती थी। बहुत सहेज के रखती थी मैं अपने अंतर्मन में उस महक को, आहिस्ता से कभी कभी दिल में बस यूँही फिरसे महसूस करने को! शायद महक तो न रह पाती थी इतने दिन तक पर फिर भी   मेरे स्मृतिपटल पर चिन्हित वो सुगंध मुझे हर एक लम्हे के साथ साथ तुम्हारी याद दिलाया करती थी। और हर नई मुलाकात पर मैं उस अदृश्य सी इत्र की डिबिया को पूरा भर ले आती अपने संग...
फिर ज्यों ज्यों हमारी मुलाकातें दिन ब दिन कम होती रहीं, ये सिलसिला भी टूटने से लगा और मेरे लाख न चाहने पर भी वो तुम्हारी महक मेरे आंचल से फिसल के कहीं खोने लगी। कुछ अरसे बाद, तुम्हारी यादें भी मेरे सीने में तन्हा रहने लगीं बिना किसी चहक के और बिना किसी भी महक के!
आज अचानक यूँही अकेले अपने बिस्तर पर मैंने करवट सी ली तो कुछ जानी पहचानी सी खुशबू मुझे मदहोशी में सराबोर कर गयी। आंखों को बिना खोले मैंने पास में रखे तकिये को अपनी बाहों में ज़रा और कस के भींचा तो सुगंध और तीव्र हो उठी। मार्च का महीना था और पार्श्व में मधुर संगीत की ध्वनि से सुर ताल मिलाता पंखा मद्धम सी रफ्तार से घूम रहा था। हल्के पसीने और मेरे एक नए अंग्रेज़ी परफ्यूम के मेल से जो तृष्णा उत्पन्न हुई थी वो मुझे यकायक चौंका गयी! यही तो सुगंध थी तुम्हारी यादों की, तुमसे मेरी हर एक मुलाक़ात की... जिसकी विरह में मैं गमगीन सी रहती थी। जब अपने ही आगोश में उस क्षण उस खुशबू को पाया तो गहन आत्मज्ञान की अनुभूति हुई और स्वतः ही यह दोहा याद आ गया..." कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूंढे बन माही..." पलट कर मेज पर रखी वो इत्र की शीशी उठा कर ज़रा कंठ से लगाई, हल्का सा मुस्काई और फिर चैन की निद्रा में लीन हो गयी, काफी अर्से के बाद, बिना किसी तृष्णा के, बिना किसी विरह की चोट के!
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महक— % & तुमसे हर बार मिलकर जब मैं वापस लौट आती थी, अपने घर, तो कई दिनों तक तुम्हारी बातों के साथ साथ कुछ खुशबू भी काफी दिन तक मेरे साथ रहती थी। बहुत सहेज के रखती थी मैं अपने अंतर्मन में उस महक को, आहिस्ता से कभी कभी दिल में बस यूँही फिरसे महसूस करने को! शायद महक तो न रह पाती थी इतने दिन तक पर फिर भी   मेरे स्मृतिपटल पर चिन्हित वो सुगंध मुझे हर एक लम्हे के साथ साथ तुम्हारी याद दिलाया करती थी। और हर नई मुलाकात पर मैं उस अदृश्य सी इत्र की डिबिया को पूरा भर ले आती अपने संग...
फिर ज्यों ज्यों हमारी मुलाकातें दिन ब दिन कम होती रहीं, ये सिलसिला भी टूटने से लगा और मेरे लाख न चाहने पर भी वो तुम्हारी महक मेरे आंचल से फिसल के कहीं खोने लगी। कुछ अरसे बाद, तुम्हारी यादें भी मेरे सीने में तन्हा रहने लगीं बिना किसी चहक के और बिना किसी भी महक के!
आज अचानक यूँही अकेले अपने बिस्तर पर मैंने करवट सी ली तो कुछ जानी पहचानी सी खुशबू मुझे मदहोशी में सराबोर कर गयी। आंखों को बिना खोले मैंने पास में रखे तकिये को अपनी बाहों में ज़रा और कस के भींचा तो सुगंध और तीव्र हो उठी। मार्च का महीना था और पार्श्व में मधुर संगीत की ध्वनि से सुर ताल मिलाता पंखा मद्धम सी रफ्तार से घूम रहा था। हल्के पसीने और मेरे एक नए अंग्रेज़ी परफ्यूम के मेल से जो तृष्णा उत्पन्न हुई थी वो मुझे यकायक चौंका गयी! यही तो सुगंध थी तुम्हारी यादों की, तुमसे मेरी हर एक मुलाक़ात की... जिसकी विरह में मैं गमगीन सी रहती थी। जब अपने ही आगोश में उस क्षण उस खुशबू को पाया तो गहन आत्मज्ञान की अनुभूति हुई और स्वतः ही यह दोहा याद आ गया..." कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूंढे बन माही..." पलट कर मेज पर रखी वो इत्र की शीशी उठा कर ज़रा कंठ से लगाई, हल्का सा मुस्काई और फिर चैन की निद्रा में लीन हो गयी, काफी अर्से के बाद, बिना किसी तृष्णा के, बिना किसी विरह की चोट के!
chavisaxena3626

Chavi Saxena

New Creator

तुमसे हर बार मिलकर जब मैं वापस लौट आती थी, अपने घर, तो कई दिनों तक तुम्हारी बातों के साथ साथ कुछ खुशबू भी काफी दिन तक मेरे साथ रहती थी। बहुत सहेज के रखती थी मैं अपने अंतर्मन में उस महक को, आहिस्ता से कभी कभी दिल में बस यूँही फिरसे महसूस करने को! शायद महक तो न रह पाती थी इतने दिन तक पर फिर भी मेरे स्मृतिपटल पर चिन्हित वो सुगंध मुझे हर एक लम्हे के साथ साथ तुम्हारी याद दिलाया करती थी। और हर नई मुलाकात पर मैं उस अदृश्य सी इत्र की डिबिया को पूरा भर ले आती अपने संग... फिर ज्यों ज्यों हमारी मुलाकातें दिन ब दिन कम होती रहीं, ये सिलसिला भी टूटने से लगा और मेरे लाख न चाहने पर भी वो तुम्हारी महक मेरे आंचल से फिसल के कहीं खोने लगी। कुछ अरसे बाद, तुम्हारी यादें भी मेरे सीने में तन्हा रहने लगीं बिना किसी चहक के और बिना किसी भी महक के! आज अचानक यूँही अकेले अपने बिस्तर पर मैंने करवट सी ली तो कुछ जानी पहचानी सी खुशबू मुझे मदहोशी में सराबोर कर गयी। आंखों को बिना खोले मैंने पास में रखे तकिये को अपनी बाहों में ज़रा और कस के भींचा तो सुगंध और तीव्र हो उठी। मार्च का महीना था और पार्श्व में मधुर संगीत की ध्वनि से सुर ताल मिलाता पंखा मद्धम सी रफ्तार से घूम रहा था। हल्के पसीने और मेरे एक नए अंग्रेज़ी परफ्यूम के मेल से जो तृष्णा उत्पन्न हुई थी वो मुझे यकायक चौंका गयी! यही तो सुगंध थी तुम्हारी यादों की, तुमसे मेरी हर एक मुलाक़ात की... जिसकी विरह में मैं गमगीन सी रहती थी। जब अपने ही आगोश में उस क्षण उस खुशबू को पाया तो गहन आत्मज्ञान की अनुभूति हुई और स्वतः ही यह दोहा याद आ गया..." कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूंढे बन माही..." पलट कर मेज पर रखी वो इत्र की शीशी उठा कर ज़रा कंठ से लगाई, हल्का सा मुस्काई और फिर चैन की निद्रा में लीन हो गयी, काफी अर्से के बाद, बिना किसी तृष्णा के, बिना किसी विरह की चोट के!