विवशता लिखने बैठूं मैं जब भी कविता, शब्दों से पूर्व जब आती समस्या। प्रारूप सब ऐसे बिखर जाता है, जैसे भंग हो गई हो मेरी तपस्या। व्यवधान की झड़ी लग जाती है, विचारों में रुकावट आ जाती है। लिखने से पूर्व ही सिमट जाता हूं, विवशता जब ऐसी आ जाती है। बोझ सा दिल पर रहता है, क्या कुछ नहीं ये सहता है। कविता को जब रच नहीं पाता हूं, तब अंगारों सा ये दहकता है। मस्तिष्क में उलझन रहती है, विचारों में लहर सी रहती है। कहीं पर तो अन्त हो इसका, यही विवशता तो मेरी रहती है। विवशता विवशता विवशता, कब खत्म होगी ये विवशता। जितना प्रयत्न करता हूं सुलझाने की, उतना ही घेरती है मुझे ये विवशता। लिखने बैठूं मैं जब भी कविता, शब्दों से पूर्व जब आती समस्या। प्रारूप सब ऐसे बिखर जाता है, जैसे भंग हो गई हो मेरी तपस्या। .................................................... देवेश दीक्षित ©Devesh Dixit #ThomsoOpenMic #विवशता विवशता लिखने बैठूं मैं जब भी कविता, शब्दों से पूर्व जब आती समस्या। प्रारूप सब ऐसे बिखर जाता है, जैसे भंग हो गई हो मेरी तपस्या।