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बदलते रिश्ते Read in caption:)- Note- will enjoy

बदलते रिश्ते

Read in caption:)-

Note- will enjoy but need patience 😊













     #badalte_rishte #changing_relationship
वैसे तो सृष्‍ट‍ि का प्रथम सम्बन्ध अपने रचयिता से ही माना जाना चाहिए, मगर इन्सान अपनी ज़िन्दगी की स्लेट पर रिश्तों की इबारत लिखते समय जो प्रथम शब्द मुँह से उच्चारित करता है, वह उसका अपनी माँ से मातृत्व का वो अमर रिश्ता स्थापित करता है, जिसके लिए उसकी माँ उस पर सदैव अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर रहती है। आंचल में आश्रय देती है। अपने वक्ष से उसे स्तन पान करवाती है। उसका मैला धोती है। उसकी अंगुली पकड़ कर उसे चलना सिखाती है। माँ की ममता में सना मातृत्व का यह बंधन दूध और रक्‍त से जुड़ा एक ऐसा बंधन है जिससे पुत्र कभी मुक्‍त नहीं होना चाहता। धीरे-धीरे शैशवावस्था अपने घर की नन्हीं सी दुनियाँ से जुड़ती चली जाती है। उसकी ज़िन्दगी की स्लेट पर रिश्तों की गिनती बढ़ने लगती है। माँ-बाप, भाई-बहन, दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई….। धीरे-धीरे होश संभालने से पहले ही वह दुनियादारी के मक्कड़ जाल में फँस जाता है। हर रिश्ते की कसौटी पर खरा उतरने की परिवार की अपेक्षा उसे एक सामाजिक प्राणी बना देती है जो कई बार समस्त रिश्तों में संतुलन बनाते-बनाते स्वयं असंतुलित हो कर रह जाता है। किशोर अवस्था तक आते-आते घर से बाहर की दुनियाँ उस पर अपना प्रभाव दिखाने लगती है तो उसकी सोच के घोड़े अनुशासन के अस्तबल से खुल कर बेलगाम अनजानी राहों पर सरपट भागने लगते हैं। बाहर की दुनियाँ की रूमानियत उसे घर की दुनियाँ से अधिक भली लगने लगती है। मातृत्व से संतुष्‍ट और पुष्‍ट शैशव विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होता है तो किशोर हृदय में एक ऐसी चाहत का बीज भी प्रस्फुटित हो उठता है जिसको पाने के लिए वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तुल जाता है। मातृत्व के बंधन को चुनौती देता है प्रेम का बंधन, इश्क का जुनून। मातृत्व उसे घर का छायादार पेड़ बनाने का हठ करता है तो वह पेड़ पंछी बन खुले आकाश पर उड़ाने भरने वाला स्वच्छन्द पंछी बनने का हठ करता है। बाहर की विशाल दुनियाँ हो या भीतर की दुनियाँ, रिश्तों की बेड़ियों में जकड़ा, रिश्तों में बंटा, टुकड़े-टुकड़े में से अपने आप को तलाशता दुनियाँ की भीड़ में खड़ा स्वयं को एकाकी अनुभव करने लगता है। जिसको प्रेम रोग हो उसे दुनियाँ में हर तरफ़ अपने चहेते के सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता जबकि उसकी बाक़ी रहती दुनियाँ को उसकी यह उपेक्षा सहन नहीं होती तो टकरावों में दुखांत उसका पीछा करते हैं। अपनी ज़िन्दगी आप जीने का भाग्य केवल दुर्भाग्य पूर्ण लोगों को भी मिल नहीं पाता। अनाथ के पास भी आवारा होने की क्षमता हासिल नहीं है। वह भी प्रवंचनाओं से पीड़ित होकर अपराध के अधिकार भाव से ग्रसित होकर रह जाता है। अपनी पृष्‍ठभूमि से जुड़ा इन्सान आंगन के पेड़ की भाँति परिवार से बंधे रहने को बाध्य है जबकि वह स्वच्छन्द पक्षियों की भांति उड़ने की चाहत को केवल भीतर आक्रोश पैदा करने वाली एक मशीन बनाकर स्वयं को झुलसता देखने को विवश है। देशों और समाजों की स्वतंत्रताओं के लिए आंदोलन चलाए जाते हैं, हिंसा और आतंक के बल पर ग़ुलामी की बेड़ियों को काटा जाता रहा है मगर रिश्तों के भँवर में फँसा व्यक्‍ति केवल उनमें डूब सकता है, मुक्‍त होने के लिए भँवर से लड़ना उसके वश में नहीं। इन भँवरों से लड़ने वाले सदैव डूबे हैं। रिश्तों की कसौटियों का अर्थ केवल अधिकारों के चाबुक से ही निकलता है। अगर रिश्तों को कर्त्तव्‍यों के बोध से जोड़ने की पहल हो तो शायद उसे अग्नि परीक्षा देने की नौबत ही न आए। पदार्थवादी युग में ऐश्‍वर्य से भोगी बने इन्सान के लिए भारी भरकम रिश्तों के बोझ को ढोना कठिन हो गया है। आज रिश्ते स्वार्थ सिद्धि का साधन बना दिए गए हैं। आज हर रिश्ता अपना-अपना अधिकार माँगता नज़र आता है।

वैध रिश्तों की अपेक्षाओं के ताण्डव से कुछ ऐसे रिश्ते पनपने लगे हैं जिन्हें असामाजिक और नाजायज़ रिश्तों का नाम दिया जा रहा है। स्वार्थों ने मिलकर रिश्तों में सेंधमारी की एक ऐसी गुप्‍त लहर चलाई है कि आज रिश्तों की गर्माहट को सर्द बेरुखी ने बर्फ़ बना दिया है। रिश्तों को ढोने की कैफ़ियत से निजात पाने की कूटनीति का साँप हमारी आस्तीन में घुस चुका है वह छुपा हुआ नहीं अपितु हम उसे जानबूझ कर छुपाए हुए हैं ताकि उससे डँसवाने के बाद भी हम कसूरवार न ठहराए जा सकें। आज मांँ और सास, बेटी और बहू के किरदारों के विरोधाभास चिन्तन की चौपाल पर सुलगने लगे हैं। माँ जननी के रूप में वंदनीय होकर भी सास के रूप में घृणा योग्य पात्र क्यों बनी ? बेटियाँ बहू बनने से इन्‍कार करने की ओर अग्रसर क्यों हैं ? एक ही इन्सान के चरित्र की तहें प्याज़ के छिलके की भांति खुलती हैं। रिश्तों को कटार बनाकर हम अपने ही चरित्र का खून करने पर क्यों उतारू हैं ? यह कैसी सनक है कि अपने चेहरे पर दोस्ती का मेकअप करके किसी भले मानस को ठगते हैं और धोखेबाज़ी की बोझिल गठरी को हँसते-हँसते ढोते हैं ? आज खूबसूरती से दूसरे को धोखा देने की होड़ सी लगी हुई है। किसी की बेटी से ब्याह करके जब ससुराल वाले अपहरणकर्ताओं की तरह दहेज़ की फिरौती वसूल करते हैं तो शादी की व्यवस्था के चरमराने के दुखांत को टालना समाज तो क्या राज के कानून के वश में भी नहीं रह सकता। आज विवाह और अपहरण में, दहेज़ और फिरौती में अंतर करना कठिन है। आज लालच ने इन्सान को हैवान बना दिया है जिसके लिए रिश्तों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। स्वार्थसिद्धि पर व्यवहारिकता की मोहर भी तो आधुनिक समाज ने ही लगाई है इसलिए व्यक्‍तिगत रूप से उसकी आलोचना भी एक दिखावे से ज्‍़यादा अहमियत नहीं रखती। राम जैसा राजा, सीता जैसी पत्‍नी, लक्ष्मण जैसा देवर और भरत जैसा भाई रामायण में पढ़ने को तो मिल सकते हैं मगर रामायण पढ़ने वाले राम के भक्‍तों के घरों में भी नहीं मिलते।

बिखराव के दौर में जहाँ प्राचीन परंपराओं का बिखरना जारी है वहीं सामाजिक विघटन के दौर में समाज व परिवार सब टूटने पर आमादा है। संयुक्‍त परिवारों की जगह एकल परिवारों ने ली है जहाँ समस्त रिश्तों में पारस्परिक संघर्ष अपने चरम दौर में है। "मैं और मेरा" की रट ने रिश्तों को तार-तार कर दिया है। अधिकार पाने की होड़ में हम समस्त रिश्तों पर अपना वो अधिकार खो चुके हैं जिन पर कभी गर्व किया जा सकता था। रिश्तों से माँग-माँग कर हम ऐसे भिखारी बन चुके हैं कि रिश्तों को देने के लिए आज हमारे पास कुछ बचा ही नहीं है। आज के व्यवहारिक युग में मेहमान एक मुसीबत से बढ़ कर माना जाता है। इसलिए अवकाश में भी हम निर्जन पहाड़ों के एकांतवास पर तो जाना चाहते हैं मगर हमारे बच्चे आज अपनी छुट्टियाँ काटने मौसी, बूआ और नानी के घर जाना पसंद नहीं करते। रिश्तों में पहले वाली पारदर्शिता आज नहीं रही। स्वार्थों की कुटिलता, व्यवहारिकता गर्द बन कर रिश्तों पर पसर गई है। आज सब कुछ पा लेने की होड़ में हमें जहाँ कुछ भी खोना गवारा नहीं, वहीं हम सब कुछ पाते-पाते सब कुछ खोते जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि खोट की दुनियाँ में भले लोग नहीं रहे, रिश्तों को मानने वालों की आज भी कमी नहीं है। झूठ की इस दुनियाँ का बोझ आज भी कुछ भले मानस कंधों पर है। जफा की आँधियों में भी वफ़ा के चिराग़ जलते हैं। अच्छाई और बुराई का संतुलन बिगड़ा है, ख़त्म कुछ भी नहीं हुआ है और न होगा। जैसे एक पहलू वाला कोई सिक्का
बदलते रिश्ते

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Note- will enjoy but need patience 😊













     #badalte_rishte #changing_relationship
वैसे तो सृष्‍ट‍ि का प्रथम सम्बन्ध अपने रचयिता से ही माना जाना चाहिए, मगर इन्सान अपनी ज़िन्दगी की स्लेट पर रिश्तों की इबारत लिखते समय जो प्रथम शब्द मुँह से उच्चारित करता है, वह उसका अपनी माँ से मातृत्व का वो अमर रिश्ता स्थापित करता है, जिसके लिए उसकी माँ उस पर सदैव अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर रहती है। आंचल में आश्रय देती है। अपने वक्ष से उसे स्तन पान करवाती है। उसका मैला धोती है। उसकी अंगुली पकड़ कर उसे चलना सिखाती है। माँ की ममता में सना मातृत्व का यह बंधन दूध और रक्‍त से जुड़ा एक ऐसा बंधन है जिससे पुत्र कभी मुक्‍त नहीं होना चाहता। धीरे-धीरे शैशवावस्था अपने घर की नन्हीं सी दुनियाँ से जुड़ती चली जाती है। उसकी ज़िन्दगी की स्लेट पर रिश्तों की गिनती बढ़ने लगती है। माँ-बाप, भाई-बहन, दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई….। धीरे-धीरे होश संभालने से पहले ही वह दुनियादारी के मक्कड़ जाल में फँस जाता है। हर रिश्ते की कसौटी पर खरा उतरने की परिवार की अपेक्षा उसे एक सामाजिक प्राणी बना देती है जो कई बार समस्त रिश्तों में संतुलन बनाते-बनाते स्वयं असंतुलित हो कर रह जाता है। किशोर अवस्था तक आते-आते घर से बाहर की दुनियाँ उस पर अपना प्रभाव दिखाने लगती है तो उसकी सोच के घोड़े अनुशासन के अस्तबल से खुल कर बेलगाम अनजानी राहों पर सरपट भागने लगते हैं। बाहर की दुनियाँ की रूमानियत उसे घर की दुनियाँ से अधिक भली लगने लगती है। मातृत्व से संतुष्‍ट और पुष्‍ट शैशव विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होता है तो किशोर हृदय में एक ऐसी चाहत का बीज भी प्रस्फुटित हो उठता है जिसको पाने के लिए वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तुल जाता है। मातृत्व के बंधन को चुनौती देता है प्रेम का बंधन, इश्क का जुनून। मातृत्व उसे घर का छायादार पेड़ बनाने का हठ करता है तो वह पेड़ पंछी बन खुले आकाश पर उड़ाने भरने वाला स्वच्छन्द पंछी बनने का हठ करता है। बाहर की विशाल दुनियाँ हो या भीतर की दुनियाँ, रिश्तों की बेड़ियों में जकड़ा, रिश्तों में बंटा, टुकड़े-टुकड़े में से अपने आप को तलाशता दुनियाँ की भीड़ में खड़ा स्वयं को एकाकी अनुभव करने लगता है। जिसको प्रेम रोग हो उसे दुनियाँ में हर तरफ़ अपने चहेते के सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता जबकि उसकी बाक़ी रहती दुनियाँ को उसकी यह उपेक्षा सहन नहीं होती तो टकरावों में दुखांत उसका पीछा करते हैं। अपनी ज़िन्दगी आप जीने का भाग्य केवल दुर्भाग्य पूर्ण लोगों को भी मिल नहीं पाता। अनाथ के पास भी आवारा होने की क्षमता हासिल नहीं है। वह भी प्रवंचनाओं से पीड़ित होकर अपराध के अधिकार भाव से ग्रसित होकर रह जाता है। अपनी पृष्‍ठभूमि से जुड़ा इन्सान आंगन के पेड़ की भाँति परिवार से बंधे रहने को बाध्य है जबकि वह स्वच्छन्द पक्षियों की भांति उड़ने की चाहत को केवल भीतर आक्रोश पैदा करने वाली एक मशीन बनाकर स्वयं को झुलसता देखने को विवश है। देशों और समाजों की स्वतंत्रताओं के लिए आंदोलन चलाए जाते हैं, हिंसा और आतंक के बल पर ग़ुलामी की बेड़ियों को काटा जाता रहा है मगर रिश्तों के भँवर में फँसा व्यक्‍ति केवल उनमें डूब सकता है, मुक्‍त होने के लिए भँवर से लड़ना उसके वश में नहीं। इन भँवरों से लड़ने वाले सदैव डूबे हैं। रिश्तों की कसौटियों का अर्थ केवल अधिकारों के चाबुक से ही निकलता है। अगर रिश्तों को कर्त्तव्‍यों के बोध से जोड़ने की पहल हो तो शायद उसे अग्नि परीक्षा देने की नौबत ही न आए। पदार्थवादी युग में ऐश्‍वर्य से भोगी बने इन्सान के लिए भारी भरकम रिश्तों के बोझ को ढोना कठिन हो गया है। आज रिश्ते स्वार्थ सिद्धि का साधन बना दिए गए हैं। आज हर रिश्ता अपना-अपना अधिकार माँगता नज़र आता है।

वैध रिश्तों की अपेक्षाओं के ताण्डव से कुछ ऐसे रिश्ते पनपने लगे हैं जिन्हें असामाजिक और नाजायज़ रिश्तों का नाम दिया जा रहा है। स्वार्थों ने मिलकर रिश्तों में सेंधमारी की एक ऐसी गुप्‍त लहर चलाई है कि आज रिश्तों की गर्माहट को सर्द बेरुखी ने बर्फ़ बना दिया है। रिश्तों को ढोने की कैफ़ियत से निजात पाने की कूटनीति का साँप हमारी आस्तीन में घुस चुका है वह छुपा हुआ नहीं अपितु हम उसे जानबूझ कर छुपाए हुए हैं ताकि उससे डँसवाने के बाद भी हम कसूरवार न ठहराए जा सकें। आज मांँ और सास, बेटी और बहू के किरदारों के विरोधाभास चिन्तन की चौपाल पर सुलगने लगे हैं। माँ जननी के रूप में वंदनीय होकर भी सास के रूप में घृणा योग्य पात्र क्यों बनी ? बेटियाँ बहू बनने से इन्‍कार करने की ओर अग्रसर क्यों हैं ? एक ही इन्सान के चरित्र की तहें प्याज़ के छिलके की भांति खुलती हैं। रिश्तों को कटार बनाकर हम अपने ही चरित्र का खून करने पर क्यों उतारू हैं ? यह कैसी सनक है कि अपने चेहरे पर दोस्ती का मेकअप करके किसी भले मानस को ठगते हैं और धोखेबाज़ी की बोझिल गठरी को हँसते-हँसते ढोते हैं ? आज खूबसूरती से दूसरे को धोखा देने की होड़ सी लगी हुई है। किसी की बेटी से ब्याह करके जब ससुराल वाले अपहरणकर्ताओं की तरह दहेज़ की फिरौती वसूल करते हैं तो शादी की व्यवस्था के चरमराने के दुखांत को टालना समाज तो क्या राज के कानून के वश में भी नहीं रह सकता। आज विवाह और अपहरण में, दहेज़ और फिरौती में अंतर करना कठिन है। आज लालच ने इन्सान को हैवान बना दिया है जिसके लिए रिश्तों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। स्वार्थसिद्धि पर व्यवहारिकता की मोहर भी तो आधुनिक समाज ने ही लगाई है इसलिए व्यक्‍तिगत रूप से उसकी आलोचना भी एक दिखावे से ज्‍़यादा अहमियत नहीं रखती। राम जैसा राजा, सीता जैसी पत्‍नी, लक्ष्मण जैसा देवर और भरत जैसा भाई रामायण में पढ़ने को तो मिल सकते हैं मगर रामायण पढ़ने वाले राम के भक्‍तों के घरों में भी नहीं मिलते।

बिखराव के दौर में जहाँ प्राचीन परंपराओं का बिखरना जारी है वहीं सामाजिक विघटन के दौर में समाज व परिवार सब टूटने पर आमादा है। संयुक्‍त परिवारों की जगह एकल परिवारों ने ली है जहाँ समस्त रिश्तों में पारस्परिक संघर्ष अपने चरम दौर में है। "मैं और मेरा" की रट ने रिश्तों को तार-तार कर दिया है। अधिकार पाने की होड़ में हम समस्त रिश्तों पर अपना वो अधिकार खो चुके हैं जिन पर कभी गर्व किया जा सकता था। रिश्तों से माँग-माँग कर हम ऐसे भिखारी बन चुके हैं कि रिश्तों को देने के लिए आज हमारे पास कुछ बचा ही नहीं है। आज के व्यवहारिक युग में मेहमान एक मुसीबत से बढ़ कर माना जाता है। इसलिए अवकाश में भी हम निर्जन पहाड़ों के एकांतवास पर तो जाना चाहते हैं मगर हमारे बच्चे आज अपनी छुट्टियाँ काटने मौसी, बूआ और नानी के घर जाना पसंद नहीं करते। रिश्तों में पहले वाली पारदर्शिता आज नहीं रही। स्वार्थों की कुटिलता, व्यवहारिकता गर्द बन कर रिश्तों पर पसर गई है। आज सब कुछ पा लेने की होड़ में हमें जहाँ कुछ भी खोना गवारा नहीं, वहीं हम सब कुछ पाते-पाते सब कुछ खोते जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि खोट की दुनियाँ में भले लोग नहीं रहे, रिश्तों को मानने वालों की आज भी कमी नहीं है। झूठ की इस दुनियाँ का बोझ आज भी कुछ भले मानस कंधों पर है। जफा की आँधियों में भी वफ़ा के चिराग़ जलते हैं। अच्छाई और बुराई का संतुलन बिगड़ा है, ख़त्म कुछ भी नहीं हुआ है और न होगा। जैसे एक पहलू वाला कोई सिक्का