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संगिनी ------ मुझसी तो कभी मुझसे, बेहतर सी लगी है

संगिनी
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मुझसी तो कभी मुझसे, बेहतर सी लगी है मेरी नज़रों की तलाश उन पर ही, जा रुकी है

वह परिन्दा जो, पिंजरे से आज़ाद रहना चाहे भीड़ में वह शक़्स मुझे ज़िंदा-दिल, बेख़ौफ़ सी लगी है

न जाने क्यों भीड़ अक़्सर, शम्शान सी लगी है महफ़िल में एक वह ही मुझे, ख़ास मेहमाँ सी लगी है

दुआ में मेरे निशब्द जुबाँ पर, अल्फ़ाज़ सी लगी है मेरी सोहबत में वह ता-उम्र, महफूज़ सी लगी है

मनीष राज

©Manish Raaj
  #संगिनी