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सुनो भी।। मैं लिखता और मिटाता हूँ, ले कलम कभी कतर

सुनो भी।।

मैं लिखता और मिटाता हूँ,
ले कलम कभी कतराता हूँ।
जिनसे तेरा सरोकार नहीं,
उनकी बातें ही बतलाता हूँ।

भर स्याही कलम जो चलती है,
एक नई चेतना पलती है।
अक्षर काले हैं लेकिन,
आंदोलित करती ये जलती है।
कुछ कुत्ते पत्तल थे चाट रहे,
कुछ बच्चों में भी थे बांट रहे।
जो उत्सुक हाथ पड़े रोटी पे,
गुर्रा कर कुत्ते भी थे डांट रहे।
तेरे ही देश का ये तो किस्सा है,
इस माटी का तू भी तो हिस्सा है।
क्यूँ खुली नजर कुछ देखे नहीं,
कदमों को पल भर भी टेके नहीं।
क्यूँ हृदय ये पत्थर होता गया,
थी आंख खुली पर सोता गया।
किस रंग का तूने पहना चश्मा,
दिख भी जाती सच्चाई वरना।
तू जीव नहीं है विशेष रहा,
एक दिन है तुमको भी मरना।
कागज का सीना मैं कुरेद रहा,
मानव जाति पे मुझको खेद रहा।
क्यूँ कर जना इस धरा ने हमको,
जो पूतों का ही खून सफेद रहा।
मानव होने का क्या मैं दम्भ भरूँ,
क्या काम कहो अविलम्ब करूँ।
क्या कागज़ है निर्बल तुम बोलो,
क्या लिख लिख लौह-स्तंभ करूँ।
किस कारण जन्म हुआ अपना ये,
किस कारण हमने देह धरा।
जो रहे सहोदर अग्रज अनुज ये,
मन मे फिर क्यों द्वेष पड़ा।
समय का पहिया घूम है कहता,
पौधा पौधा भी झूम ये कहता।
स्नेह दया पहचान है तेरी,
ईश्वर ताबीजों को चूम ये कहता।
मज़हब के हैं ठेकेदार बहुत,
मैं इंसानी धर्म अपनाता हूँ।
मैं लिखता और मिटाता हूँ,
ले कलम कभी कतराता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" सुनो भी।।

मैं लिखता और मिटाता हूँ,
ले कलम कभी कतराता हूँ।
जिनसे तेरा सरोकार नहीं,
उनकी बातें ही बतलाता हूँ।

भर स्याही कलम जो चलती है,
सुनो भी।।

मैं लिखता और मिटाता हूँ,
ले कलम कभी कतराता हूँ।
जिनसे तेरा सरोकार नहीं,
उनकी बातें ही बतलाता हूँ।

भर स्याही कलम जो चलती है,
एक नई चेतना पलती है।
अक्षर काले हैं लेकिन,
आंदोलित करती ये जलती है।
कुछ कुत्ते पत्तल थे चाट रहे,
कुछ बच्चों में भी थे बांट रहे।
जो उत्सुक हाथ पड़े रोटी पे,
गुर्रा कर कुत्ते भी थे डांट रहे।
तेरे ही देश का ये तो किस्सा है,
इस माटी का तू भी तो हिस्सा है।
क्यूँ खुली नजर कुछ देखे नहीं,
कदमों को पल भर भी टेके नहीं।
क्यूँ हृदय ये पत्थर होता गया,
थी आंख खुली पर सोता गया।
किस रंग का तूने पहना चश्मा,
दिख भी जाती सच्चाई वरना।
तू जीव नहीं है विशेष रहा,
एक दिन है तुमको भी मरना।
कागज का सीना मैं कुरेद रहा,
मानव जाति पे मुझको खेद रहा।
क्यूँ कर जना इस धरा ने हमको,
जो पूतों का ही खून सफेद रहा।
मानव होने का क्या मैं दम्भ भरूँ,
क्या काम कहो अविलम्ब करूँ।
क्या कागज़ है निर्बल तुम बोलो,
क्या लिख लिख लौह-स्तंभ करूँ।
किस कारण जन्म हुआ अपना ये,
किस कारण हमने देह धरा।
जो रहे सहोदर अग्रज अनुज ये,
मन मे फिर क्यों द्वेष पड़ा।
समय का पहिया घूम है कहता,
पौधा पौधा भी झूम ये कहता।
स्नेह दया पहचान है तेरी,
ईश्वर ताबीजों को चूम ये कहता।
मज़हब के हैं ठेकेदार बहुत,
मैं इंसानी धर्म अपनाता हूँ।
मैं लिखता और मिटाता हूँ,
ले कलम कभी कतराता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" सुनो भी।।

मैं लिखता और मिटाता हूँ,
ले कलम कभी कतराता हूँ।
जिनसे तेरा सरोकार नहीं,
उनकी बातें ही बतलाता हूँ।

भर स्याही कलम जो चलती है,

सुनो भी।। मैं लिखता और मिटाता हूँ, ले कलम कभी कतराता हूँ। जिनसे तेरा सरोकार नहीं, उनकी बातें ही बतलाता हूँ। भर स्याही कलम जो चलती है, #Poetry #kavita