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आग उगलती गर्मी से दुगुनी हो गई पीर ,थके हुए क़दमो

 आग उगलती गर्मी से दुगुनी हो गई पीर ,थके हुए क़दमो को कौन बंधाये धीर ,
घर   भर     की    जिम्मेदारियों  से उसका , कृषकाय हुआ शरीर ,

थका ऊँट जैसे सराय तके , वैसी ही मनस्थिति उस देह की हुई है,
दर्द में जैसे सब  छोड़ जाते हैं ,ये काया भी कहाँ किसी की हुई है,

मंद    गति     से     फ़िर     भी       वह        अनवरत चल रहा है,
शनैः  शनैः     देह       का           भी      जैसे       दिन    ढल रहा है ,

पहुँच   ही  जायेगा   एक    दिन     वो  ,    उस अंतिम पड़ाव तक ,
सुकून    से     सो     जाएगा     जिनमें ,   उन तारो की छाँव तक ।।

-पूनम आत्रेय

©poonam atrey
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