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बदलता परिवेश न जाने क्यों कोई आशा दे जाते हैं

बदलता परिवेश



न जाने क्यों कोई आशा दे जाते हैं

फिर न जाने कहाँ गुम हो जाते हैं

एक के बाद एक दूजा फिर नयी उम्मीद लाते हैं

वो भी कहीं गलियारों में कहीं खो जाते हैं

तोड़ के हम सारी हदें पार कर जाते हैं

खाके ठोकरें लौट फिर घर को आते हैं

क्यूँ हम अपनी संस्कृति को भूल जाते हैं

तंग वस्त्र पहन खूब इठलाती हैं

अंग्रेजी बोले जो उसे ही अपना दोस्त बनाते हैं

हिंन्दुस्तान में रह हिंदी बोलने में शरमाते हैं

न जाने क्यूँ हम स्वदेशी वस्तु लेने में हिचकिचाते हैं

दो मिनट मंदिरों में जाने के बजाए हम देर रात तक क्लबों में समय बिताते हैं

हर दिन माँ के हाथ के पकवान फीके बोल हम पीछा बर्गर खूब खा जाते हैं साथ में जूस की जगह जहर समान कोल्डड्रिंक पीते जाते हैं

माँ बाप के लिए दो पल नहीं मगर फोन पर खूब बतियाते हैं

न जाने क्यूँ खुद को भारतीय फिर बताते हैं।

©Usha bhadula
  #sadak बदलता परिवेश
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Usha bhadula

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#sadak बदलता परिवेश #कविता

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