White ऐसा वक़्त भी आया है, मौत से बदतर, चाह कर भी मर नहीं सकते, ये कैसी डगर? ज़ख़्मों की गिनती अब कोई क्या करे, हर दर्द नया है, हर रात बेअसर। जीने की मजबूरी भी कैसी सज़ा है, हर सांस भारी है, हर दिन बेख़बर। चाहा था सोना, मगर नींद भी रूठी, सपने भी अब तो लगते हैं पत्थर। कौन समझेगा ये दर्द की आग? आंसू भी सूखे, हैं लफ़्ज़ बे नजर।। ~ पूनम सिंह भदौरिया ©meri_lekhni_12 जीना मजबूरी..