जेठ की एक दोपहर प्यास से सूखे अधर नीड़ के निर्माण की गाथाएं लिखता बाध्यता भूख की पांव के छालों से कैसे हारती दो निवाले के लिए सौ बार मन को मारती दोपहर की आंच से मुश्किल बहुत था जूझना आंखों में आशाएं और उम्मीद की कुछ राहतें डूबते दिनमान के संग सांझ की बस चाहतें सर पर न कोई साया हो चांद बस घर आया हो शिथिल पड़ते तन संतृप्त क्षुधा उल्लसित जीवन... प्रीति #नीड़ का निर्माण #मजबूरी #yqhindiquotes Sandeepji कभी कभी सोच भी आपस में गुफ्तगू कर लेते हैं