आशंकायें आज फिर सिर उठा रही हैँ कैसे पूरे होंगे सपने इन थके हारे कंधों से पाव दोनों जख़्मी हो चुके उलझन भरे काँटों से जीवन पथ लथ पथ है कंटिली झाड़ियों से अब जे बकतरा गाँव का प्रधान बन बैठा है जीवन ऊब चुका उन खुराफ़ाति मनरेगाओं से गांव का मदरसा भी सूनेपनका ज्ञान सिखा रहा अब तो असली ज्ञान मिल रहा है नून तेल लकड़ी से हकीम हुक्कामों क़े पास टॉमी पूसी पल रहे बेबस रियाया जी रही मुर्गी और बकरी क़ेपालन से जबसे गाँव शहरों मे घुसपैठ कर रहा है शहरी फुटपाथ आबाद हुए हैँ भूखे नंगो की आवक से ©Parasram Arora कंटिली झाड़ियां