जहां चित्त भय से शून्य हो जहां चित्त भय से शून्य हो जहां गर्व से माथा ऊंचा कर चल सकें जहां ज्ञान मुक्त हो जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर छोटे - छोटे आंगन न बनाएं जाते हो जहां हर वाक्य ह्रदय की गहराई से निकालता हो जहां हर दिशा में कर्म के अजस्र नदी के स्त्रोत फूटते हो और निरंतर अबाधित बहते हो जहां विचारों की सरिता तुच्छ आचारों की मरु भुमि में न खोती हो जहां पुरुषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो जहां पर सभी कर्म, भावनाएं,आनंदानुभूतियां तुम्हारे अनुगत हो हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओं - गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर _ अनुवाद : शिवमंगल सिंह सुमन ©Sanjana Hada #Red