जबसे मैंने है होश संभाला, तबसे था मेरी आज़ादी पर ताला, पैदा हुई तो कहाँ थाली की झंकार थी, ठीकरा फोड़ा गया रोने की किलकार थी, भाई को मिला प्यार-दुलार अपार, मुझे मिली तो सही पर दुत्कार, पर पता नही क्या था मुझमे, जब भी जंजीरों का अहसास, कुछ ज्यादा होता था तो, कुछ ज्यादा होता था महसूस, कुछ कर गुजरने को हो जाती थी आतुर, ये ही खूबी कहो या खामी लेकर, पार करती रही उम्र के पडाव, और वो दिन भी आया जब सपने होते हँ रंगीन, आँखों में लिए सपने आई पिया के द्वार, हाँ-हाँ कहते अच्छे बीते कई बरस, पर फ़िर वो ही बचपन की खामी, सीमायें तोड़ जाने की अपनी शक्ति, बंधे हाथों ने दी उड़ने की स्वीकारोक्ति, पैरों की इन बेडियों ने दिए गगनचुम्बी, होंसले, जो रहे सालों दिल में छिपे, सच पूछो यारों इन ठोकरों ने ही, जिंदगी गतिशील हसीं की है, जब भी अपनों ने मुझे, मेरे अस्तित्व को नकारना, मिटाना, दबाना चाहा है, मुझे मेरी अपनी पहचान और भी, निखर कर, उभर कर मिली है, मुझे छूने से पहले ओ दरिंदो, कर लो तुम भस्म होने की तैयारी, तुम्हारे इन बन्धनों ने मुझे है बनाया हिम्मतवाली और शक्तिशाली, जो आये पास मेरे तो मैं आग लगा दूंगी, अब मैं ना अन्याय सहूँगी, ना अब चुप-छुप रहूंगी. ©Atif Ahmed मेरी कविता-मेरी कहानी-सुन लो तुम सब मेरी जुबानी