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मैं बस लिखता हूँ।। कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखत

मैं बस लिखता हूँ।।

कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।
मन के बर्तन को राख से मांज लिखता हूँ।

खाली चढ़ा चूल्हे पे जो जल रहा कल था,
उम्मीद की आंखें टिकाए पल रहा कल था।
सूखा दूध छाती में रहा बर्तन भी खाली था,
रहा जो पक चूल्हे पे वो तो बस ख्याली था।
मां की आर्द्र आंखें थी, बच्चे घूरते चूल्हा,
दबाये पेट अपना और टिकाये जांघ पे कुल्हा।
नई सदी के नींव की थी माटी रही कच्ची,
भूख में बालक पले भूखी हर एक बच्ची।
किसी के आंसुओं पे बन रहा एक देश प्यारा था,
वही टूटा रहा जिसके लिए हर एक नारा था।
जलते इस उपले की मैं तो आंच लिखता हूँ।
कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।

देखो वहां कुत्तों के संग जूझता है कौन,
भूख देखो भौंकती है, आत्मा है मौन।
मानव पशु के मेल की ये भी निशानी है,
जूठन को लड़ते रहे संग रात बितानी है।
उनकी हंसी उनकी खुशी का दायरा है पेट,
भूख से लड़ते रहेंगे, आ जाएंगे फिर खेत।
सोच है की चांद को भी हम फतह कर लें,
पर पहले तय जीवन की हम वजह कर लें।
भूख में जिंदा है उसकी तो चांद रोटी है,
जो पेट है खाली तो सारी बात खोटी है।
मैं सच और झूठ, खुद जांच लिखता हूं।
कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" मैं बस लिखता हूँ।।

कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।
मन के बर्तन को राख से मांज लिखता हूँ।

खाली चढ़ा चूल्हे पे जो जल रहा कल था,
उम्मीद की आंखें टिकाए पल रहा कल था।
सूखा दूध छाती में रहा बर्तन भी खाली था,
मैं बस लिखता हूँ।।

कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।
मन के बर्तन को राख से मांज लिखता हूँ।

खाली चढ़ा चूल्हे पे जो जल रहा कल था,
उम्मीद की आंखें टिकाए पल रहा कल था।
सूखा दूध छाती में रहा बर्तन भी खाली था,
रहा जो पक चूल्हे पे वो तो बस ख्याली था।
मां की आर्द्र आंखें थी, बच्चे घूरते चूल्हा,
दबाये पेट अपना और टिकाये जांघ पे कुल्हा।
नई सदी के नींव की थी माटी रही कच्ची,
भूख में बालक पले भूखी हर एक बच्ची।
किसी के आंसुओं पे बन रहा एक देश प्यारा था,
वही टूटा रहा जिसके लिए हर एक नारा था।
जलते इस उपले की मैं तो आंच लिखता हूँ।
कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।

देखो वहां कुत्तों के संग जूझता है कौन,
भूख देखो भौंकती है, आत्मा है मौन।
मानव पशु के मेल की ये भी निशानी है,
जूठन को लड़ते रहे संग रात बितानी है।
उनकी हंसी उनकी खुशी का दायरा है पेट,
भूख से लड़ते रहेंगे, आ जाएंगे फिर खेत।
सोच है की चांद को भी हम फतह कर लें,
पर पहले तय जीवन की हम वजह कर लें।
भूख में जिंदा है उसकी तो चांद रोटी है,
जो पेट है खाली तो सारी बात खोटी है।
मैं सच और झूठ, खुद जांच लिखता हूं।
कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" मैं बस लिखता हूँ।।

कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ।
मन के बर्तन को राख से मांज लिखता हूँ।

खाली चढ़ा चूल्हे पे जो जल रहा कल था,
उम्मीद की आंखें टिकाए पल रहा कल था।
सूखा दूध छाती में रहा बर्तन भी खाली था,

मैं बस लिखता हूँ।। कभी सवेरे तो कभी मैं सांझ लिखता हूँ। मन के बर्तन को राख से मांज लिखता हूँ। खाली चढ़ा चूल्हे पे जो जल रहा कल था, उम्मीद की आंखें टिकाए पल रहा कल था। सूखा दूध छाती में रहा बर्तन भी खाली था, #Poetry #kavita